2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 14 गहने

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 14 गहने

गहने Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
बेटी सोने के गहने क्यों नहीं चाहती?
उत्तर:
बेटी कहती है कि सोने के गहने तकलीफ देते हैं, अतः नहीं चाहिए।

प्रश्न 2.
बेटी रंगीन कपड़े पहनने से क्यों इनकार करती है?
उत्तर:
रंगीन कपड़े मिट्टी में खेलने नहीं देते।

प्रश्न 3.
माँ रंगीन कपड़े और गहने पहनने के लिए क्यों आग्रह करती है?
उत्तर:
माँ रंगीन कपड़े और गहने पहनने के लिए इसलिए आग्रह करती है कि इससे अति सुंदर लगेगी।

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प्रश्न 4.
बेटी को क्यों सुंदर दिखना है?
उत्तर:
देखनेवालों को सुंदर लगता है और माँ को भी आनंद मिलता है। इसलिए बेटी को सुंदर दिखना है।

प्रश्न 5.
बेटी सजने-धजने से क्या महसूस करती है?
उत्तर:
बेटी सजने-धजने से अपने आपको बंधित महसूस करती है।

प्रश्न 6.
बेटी किन्हें गहने मानती है?
उत्तर:
बेटी अपने बचपन को और माँ की ममता (मातृत्व) को ही गहने मानती है।

प्रश्न 7.
माँ और बेटी एक दूसरे के लिए क्या बनते हैं?
उत्तर:
माँ और बेटी एक दूसरे के लिए गहने बनते हैं।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
बेटी रंगीन कपड़े और गहने क्यों नहीं चाहती?
उत्तर:
बेटी सोने-चांदी के गहने पहनकर या रंगीन कपडे पहनकर सुंदर दिखना नही चाहती। हम जैसे है वैसे ही सुंदर है, जैसे भगवान ने हमें बनाया है। गहने पहनना उसे एक बंधन सा लगता है, उसे तकलीफ होती है उन्हे पहनने से। कपडे भी अगर रंग-बिरंगे हो कीमती, हो तो उसे संभालना पडता है वहज हाँ चाहे वहाँ, मिट्टी में खेल भी नही सकते इसलिए वह रंगीन कपडे और गहने नही पहनना चाहती।

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प्रश्न 2.
‘गहने’ कविता के द्वारा कवि ने क्या आशय व्यक्त किया है?
उत्तर:
गहने कविता के द्वारा कवि यह कहना चाहते है कि नैसर्गिक सुंदरता ही असली सुंदरता होती है। सुंदर दिखने के लिए सोने चांदीके गहने पहनना जरूरी नही होता। सोने-चांदीके गहने बहुत मँहगे होते है। माँ-बाप अपनी सारी मेहनत की कमाई गहने खरिदने में खर्च करते है। कुछ बच्चों को गहने पसंद नही आते, नाहि रंगबिरंगे, मँहगे कपडे पहनना। फिर वे मिट्टी में आदि खेल नही सकते। मातृत्व को पाकर एक औरत के चेहरे पर संतुष्टी का भाव आता है, वही उसकी सुंदरता होती है।

वैसे ही बच्चेका निष्पाप रुपभी उतना ही सुंदर होता है। उन्हे गहनों की क्या जरूरत? माँ का गहना उसकी बच्ची है और बच्ची का गहना उसकी माँ है। दूसरों को दिखाने के लिए, सुंदर दिखने के लिए हम क्यों गहने पहने? कवि का यही आशय है।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
ताकि दिखाई दो सुंदर, बहुत ही सुंदर-यों कहती हो
सुंदर लगे किसको, कहो माँ?
देखनेवालों को लगता है सुंदर, देता है
आनंद; मगर मुझे बनता है बड़ा बंधन!
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘गहने’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसके रचयिता कुवेंपू हैं।

संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियों में उन्होंने गहने से अधिक माँ और बेटी के रिश्ते को महत्व दिया है।

भाव स्पष्टीकरण : माँ अपनी बेटी से सोने के गहने और रंगीन कपड़े पहनने के लिए कहती है। बेटी ऐसा करने से मना करती है क्योंकि सोने के गहने तकलीफ़ देते हैं और रंगीन कपड़े उसे मिट्टी में खेलने नहीं देते। वह कहती है कि देखनेवाले को भले ही आनंद दे लेकिन मुझे बड़ा बंधन लगता है।

विशेष : सरल भाषा, माँ और बेटी का मधुर संबंध।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
मेरा यह बचपन, तुम्हारा मातृत्व
ये ही गहने हैं मेरे लिए, माँ;
मैं तुम्हारा गहना; तुम मेरा गहना;
फिर अन्य गहने क्यों चाहिए, माँ?
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘गहने’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसके रचयिता कुवेंपू हैं।

संदर्भ : कुवेंपु जी आपसी रिश्तों में प्रेम को, गहनों से भी कई ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वे कहना चाहते है की भौतिक पदार्थ (सोना, आभूषण वगैरह) माँ की ममता और पुत्री के स्नेह के आगे कुछ भी महत्व नहीं रखते।

भाव स्पष्टीकरण : बेटी माँ से गहनों की व्यर्थता के बारें में कह रही है। वह कहती है कि मेरा यह प्यारा बचपन जिसमें तुमने मुझे खूब प्यार और स्नेह दिया है, मेरे लिए मेरा यह बचपन गहने से भी बढ़कर है। तुम्हारा मातृत्व सुख दुनिया का सबसे बड़ा सुख है। हमारा यह सुख (मेरा बचपन का और तुम्हारा मातृत्व का) सबसे बड़ा सुख है। इस सुख की प्राप्ति धन से या आभूषणों से नहीं की जा सकती। माँ! जब हमारे पास इतनी बड़ी संपत्ति है तब फिर अन्य संपत्ति या गहने क्यों चाहिए? इस प्रकार कुवेंपु जी माँ-बेटी के बचपन और मातृत्व के सुख को सब सुखों से बढ़कर बताते हैं।

विशेष : कन्नड़ से अनुवादित कविता है।

गहने कवि परिचय :

महाकवि कुवेंपु (कुप्पळ्ळि वेंकटप्पा पुट्टप्पा) आधुनिक कन्नड साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार हैं। साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं है जिसमें कुवेंपु जी ने न लिखा हो। आपका जन्म कर्नाटक राज्य के चिक्कमगळूर जिले के कोप्पा नामक गाँव के वेंकटप्पा गौडा और श्रीमती सीतम्मा के सुपुत्र के रूप में 29 दिसंबर 1904 ई. को हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा तीर्थहळ्ळि में और उच्च शिक्षा मैसूर विश्वविद्यालय के महाराजा कॉलेज में हई। आप मैसर विश्वविद्यालय के महाराजा कॉलेज में कन्नड़ भाषा के प्राध्यापक एवं प्राचार्य भी रहे। तदुपरांत मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति बनने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ।

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प्रमुख रचनाएँ : ‘रामायण दर्शनम’ (महाकाव्य), ‘चित्रांगदा’ (खंड काव्य), ‘कोळलु’, ‘कोगिले मत्तु सोवियत रश्या’, ‘नविलु’, ‘पक्षिकाशी’, ‘पाँचजन्य’, ‘कलासुंदरी’, ‘प्रेम काश्मीर’, ‘चंद्रमंचक्के बा चकोरी’, ‘इक्षुगंगोत्री’ आदि (कविता संग्रह), ‘कानूरू सुब्बम्मा हेग्गडिति’ और ‘मलेगळल्लि मदुमगळु’ (उपन्यास) हैं। ‘सन्यासी मत्तु इतर कथेगळु’ (कथासंग्रह), ‘बेरळगे कोरळ’, ‘रक्ताक्षी’, ‘बिरुगाळी’ आदि (नाटक), ‘बोम्मन हळ्ळिय किंदरिजोगी’ (बालसाहित्य)। ‘रामायण दर्शनम’ महाकाव्य पर आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार से विभूषित किया गया।

गहने अनुवादक का परिचय :

डॉ. एम. विमला का जन्म 16 मार्च 1955 में हुआ। आपने 1976 ई. में एम.ए. (हिन्दी) तथा 1982 ई. में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आप बहुभाषी विदुषी हैं। आपने अनुवाद के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। आपके मार्गदर्शन में अनेक छात्र-छात्राओं ने सराहनीय शोध कार्य किया है। आप ‘हिन्दी सेवी सम्मान’ ‘लाल बहादुर शास्त्री अनुसंधान पुरस्कार’, ‘रंग सम्मान’, ‘महात्मा गांधी पुरस्कार’ आदि से सम्मानित हैं। आप संप्रति बैंगलूर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं।
प्रस्तुत कविता कुवेंपु जी की कन्नड कविता ‘ओडवेगळु’ का हिन्दी अनुवाद है जो ‘नन्न मने’ कवितां संकलन से लिया गया है।

गहने कविता का आशय :

प्रस्तुत कविता में माँ और बेटी का संवाद है। माँ बेटी को गहने पहनाना चाहती है, पर बेटी उन्हें पहनना नहीं चाहती। वह माँ को तथा अपने को ही गहना मानती है।

गहने कविता का भावार्थ :

1) सोने के गहने क्योंकर, माँ?
तकलीफ देते हैं, नहीं चाहिए, माँ!
रंगीन कपड़े क्योंकर, माँ?
मिट्टी में खेलने नहीं देते, माँ!

माँ से बेटी कहती है कि सोने के गहने क्यों चाहिए माँ? ये मुझे तकलीफ देते हैं, मुझे नहीं चाहिए। ये रंगीन कपड़े क्यों चाहिए माँ? ये मुझे मिट्टी में खेलने नहीं देते।

2) ताकि दिखाई दो सुंदर, बहुत ही सुंदर-यों कहती हो
सुंदर लगे किसको, कहो माँ?
देखनेवालों को लगता है सुंदर, देता है आनंद;
मगर मुझे बनता है बड़ा बंधन!

माँ ने बेटी से कहा – इसलिए कि तू सुंदर लगे और देखने वाले भी प्रसन्न हों। किसे माँ? देखने वालों को सुंदर लगे और मुझे आनंद मिले। माँ! इन्हें पहनने से मैं बन्धन में आ जाऊँगी।

3) मेरा यह बचपन, तुम्हारा मातृत्व
ये ही गहने हैं मेरे लिए, माँ;
मैं तुम्हारा गहना; तुम मेरा गहना;
फिर अन्य गहने क्यों चाहिए, माँ?

माँ! मेरा यह बचपन और तुम्हारा मातृत्व ये ही तो हैं मेरे लिए गहने। मैं तुम्हारा गहना हूँ और तुम मेरा गहना हो माँ! फिर अन्य गहने या आभूषण लेकर क्या करूँ?

गहने Summary in Kannada

गहने Summary in Kannada

गहने Summary in English

This poem has been written by the Kannada poet Kuvempu and translated into Hindi by Dr. M. Vimala. In this poem, we witness a conversation between a mother and her daughter.

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The daughter asks her mother why she must wear gold jewellery. The daughter tells her mother that the gold jewellery causes her trouble and she does not want it. She then asks her mother why she must wear such colourful clothes. She is not able to play in the mud because her colourful clothes will get soiled.

The mother replies to her daughter that the jewellery and colourful clothes will make her look beautiful and pleasing. The daughter asks who will find her beautiful and be pleased by her appearance. The mother replies that people who look at her will find her beautiful and that will please the mother. The daughter complains that by wearing jewellery she will be bound by it.

In the last stanza, the daughter implores her mother to understand that her childhood and her mother’s motherhood itself are two great jewels for the daughter. The daughter tells her mother that she is a jewel for her mother, and the mother herself is a jewel for her daughter. Thus, the daughter asks her mother – of what use are all other jewels and trinkets?

कठिन शब्दार्थ :
तकलीफ – कष्ट;
बंधन – रुकावट।

2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 13 अधिकार

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 13 अधिकार

अधिकार Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
मुस्काते फूल को क्या आना चाहिए?
उत्तर:
मुस्काते फूलों को मुरझाना भी आना चाहिए।

प्रश्न 2.
मेघ में किस चीज़ की चाह होनी चाहिए?
उत्तर:
मेघ में घुल जाने की चाह होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
आँखों की सुंदरता किससे बढ़ती है?
उत्तर:
आँखों की सुंदरता आँसू रूपी मोतियों से बढ़ती है।

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प्रश्न 4.
प्राणों की सार्थकता किसमें है?
उत्तर:
प्राणों की सार्थकता उसी में है, जिनमें बेसुध पीड़ा सोती।

प्रश्न 5.
कवयित्री को किसकी चाह नहीं हैं?
उत्तर:
कवयित्री को अमरों के लोक की चाह नहीं हैं।

प्रश्न 6.
कवयित्री किस अधिकार की बात कर रही हैं?
उत्तर:
कवयित्री मिटने के अधिकार की बात कर रही है।

प्रश्न 7.
परमात्मा की करुणा से कवयित्री को क्या मिला?
उत्तर:
परमात्मा की करुणा से कवयित्री को मिटने का अधिकार मिला।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
तारों के दीप को क्या भाना चाहिए?
उत्तर:
तारों के दीप को बुझ जाना भाना चाहिए।

प्रश्न 2.
ऋतुराज को कौन-सी राह देखनी चाहिए?
उत्तर:
ऋतुराज को जाने की राह देखनी चाहिए।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
फूल एवं तारों के विषय में कवयित्री महादेवी वर्मा क्या कहती हैं?
उत्तर:
फूल और तारों को बिम्ब के रूप में प्रयोग करते हुए कवयित्री ने इनके माध्यम से जीवन की नश्वरता एवं अस्थिरता पर प्रकाश डाला है। फूल जो खिलकर सबको प्रसन्नचित्त करता है उसे एक दिन मुरझाना भी पड़ता है। जिन फूलों को मुरझाना नहीं आता उन्हें मुस्कुराने का भी हक नहीं है। तारे जो विस्तीर्ण आकाश में टिमटिमाकर रात में अपना प्रकाश फैलाते हैं रात ढलते ही छिप जाना पड़ता है। ऐसे तारे दीपक नहीं बन सकते जो बुझना न जानते हों। जो मनुष्य दुख नहीं सह सकता, उसे सुख की चाह नहीं रखनी चाहिए। सुख और दुख जीवन में आते रहते हैं। उनसे मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए।

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प्रश्न 2.
बादल एवं वसन्त ऋतु से हमें क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर:
बादलों से तथा वसन्त ऋतु से हमें प्रेरणा मिलती है कि हम स्वर्ग में नीलम की तरह रहने वाले बादल न बने बल्कि जिस प्रकार बादल उमड़-घुमड़कर इस तृप्त धरा को शीतलता प्रदान करते हैं वैसे ही हमें दूसरों की पीड़ा में शामिल होना चाहिए। ऋतुराज वसन्त से यह प्रेरणा मिलती है कि वह जिस प्रकार बार बार नित नूतन बनकर आता है वैसे हमें भी जीवन में नित नये प्रयोग करते रहना चाहिए।

प्रश्न 3.
जीवन की सार्थकता किसमें है?
उत्तर:
महादेवी वर्मा कहती हैं कि जीवन में सुख और दुख दोनों का समान महत्व है। ये जीवन के अभिन्न अंग हैं। जिस तरह मेघ की सार्थकता पिघल कर बरसने में, जग को आनंद देने में है, उसी तरह जीवन की सार्थकता परिस्थितियों का सामना करने में है न कि उनसे पलायन करने में। मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह जीवन को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार करे।

प्रश्न 4.
कवयित्री अमरों के लोक को क्यों ठुकरा देती हैं?
उत्तर:
कवयित्री महादेवी वर्मा जी का विश्वास है कि वेदना एवं करुणा उन्हें आनंद की चरमावस्था तक ले जा सकते हैं। उन्होंने वेदना का स्वागत किया है। उनके अनुसार जिस लोक में दुःख नहीं, वेदना नहीं, ऐसे लोक को लेकर क्या होगा? जब तक मनुष्य दुःख न भोगे, अंधकार का अनुभव न करे तब तक उसे सुख एवं प्रकाश के मूल्य का आभास नहीं होगा। जीवन नित्य गतिशील है। अतः इसमें उत्पन्न होनेवाले संदर्भो को रोका नहीं जा सकता। जीवन की महत्ता परिस्थितियों का सामना करने में है, उनसे भागने में नहीं। कवयित्री अमरों के लोक को ठुकराकर अपने मिटने के अधिकार को बचाये रखना चाहती हैं।

प्रश्न 5.
‘अधिकार’ कविता में प्रयुक्त प्राकृतिक तत्वों के बारे में लिखिए।
उत्तर:
महादेवी वर्मा छायावादी कवयित्री थीं। प्रकृति वर्णन छायावाद का प्रमुख अंग हैं। ‘अधिकार’ कविता में भी कवयित्री ने कई प्राकृतिक तत्वों के द्वारा हमें संदेश दिया है। फूल, तारे, मेघ, वसंत ऋतु आदि प्राकृतिक तत्वों द्वारा दुःख एवं वेदना का अनुभव कराया है। नीले मेघों को धुलना चाहिए और वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु का आना स्वाभाविक है। उसी तरह मानव जीवन में सुख-दुःख सामान्य है। दुख, वेदना, यातना की अनुभूति कर धैर्य से सामना करना चाहिए।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
‘अधिकार’ कविता के द्वारा कवयित्री ने क्या संदेश दिया हैं?
उत्तर:
महादेवी वर्मा ने वेदना का स्वागत करते हुए कहा है कि जिस लोक में अवसाद नहीं, वेदना नहीं, ऐसे लोक को लेकर क्या होगा? जीवन की सार्थकता परिस्थितियों से डट कर मुकाबला करने में है। फूल, तारे, बादल, वसंत आदि प्रकृति से अनेक बिम्बों का प्रयोग करके कवयित्री ने जीवन के प्रति गहरी आस्था व्यक्त की है। कवयित्री को वेदना का वह रूप प्रिय है जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को समस्त संसार से बाँध देता है। जीवन में वेदना की अनुभूति का महत्व तथा संघर्ष पथ पर निरंतर आगे बढ़ने का संदेश दिया है।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं-
जिसने जाना मिटने का स्वाद!
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘अधिकार’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसकी रचयिता महादेवी वर्मा हैं।

संदर्भ : यहाँ महादेवी वर्मा अपने अज्ञात प्रियतम से कहती हैं कि जिसमें न तो विरह वेदना है और न ही किसी का दुख है, हे देव यह लोक मुझे नहीं चाहिए। मैं तो इस लोक में अपने वेदनामय जीवन से ही सुखी हूँ।

स्पष्टीकरण : महादेवी वर्मा इन पक्तियों में कहती हैं कि जिस लोक में अवसाद नहीं, वेदना नहीं, ऐसे लोक को लेकर क्या होगा? जो खुद अपने लिए जीता है, उसका जीना भी क्या? जो परिस्थितियों का डटकर सामना करता है, वही असली जीना जीता है। जिसमें आग नहीं, जिसने जलना नहीं जाना, उसका जीना भी क्या? वह तो खुशी से मर-मिटना भी नहीं जानता। जो दुःख का सामना करना जानता है, मर-मिटना जानता है, वही मुसकुराना भी जानता है।

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प्रश्न 2.
क्या अमरों का लोक मिलेगा?
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘अधिकार’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसकी रचयिता महादेवी वर्मा हैं।

भाव स्पष्टीकरण : आधुनिक मीरा कहलाने वाली महादेवी वर्मा जी वेदना, अवसाद, करुणा, दुःख, यातना, पीड़ा को मानव जीवन के अविभाज्य अंग मानती हैं। वे इन अनुभवों को स्वर्ग सुख से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानती हैं। स्वर्ग लोक में सुख ही सुख है, दुःख का नाम ही सुनाई नहीं देता। दुःख, अवसाद, पीड़ा आदि ये सब मानव की अमूल्य निधियाँ है। तुम्हारे ऐसे स्वर्ग लोक में आकर मैं क्या करूँ? मुझे तो मानव लोक ही मधुर लगता है। हे भगवान! मधुर पीड़ा से मर मिटने का अधिकार मेरे लिए ही छोड़ दो।

प्रश्न 3.
वे मुस्काते फूल, नहीं-
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘अधिकार’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसकी रचयिता महादेवी वर्मा हैं।

संदर्भ : महादेवी जी के इस सरस गीत में वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। वे अपने अज्ञात प्रियतम की विरह की पीड़ा पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहती है। वे सर्वसुख सम्पन्न लोक की कामना नहीं करतीं। वे सांसारिक जीवन में ही रहने की कामना करती हैं।

व्याख्या : महादेवी वर्मा अपने प्रियतम (परमात्मा) को संबोधित करती हुई कहती हैं कि मैंने सुना है कि तुम्हारे लोक (स्वर्ग) में फूल सदैव खिले रहते हैं उन्होंने कभी मुरझाना नहीं सीखा है, किन्तु मैं तो वे फूल चाहती हूँ जिन्होंने मुरझाना भी सीखा है। पीडा का अपना आनंद है। आपके स्वर्ग लोक में तारों के दीपक हैं जिनको बुझ जाना कभी अच्छा नहीं लगता है, अर्थात् वे सदैव जलते रहते हैं। यादि तुम मुझे अपना लोक प्रदान करो तो मुझे ये दीपक नहीं चाहिए। मुझे तो संघर्षशील मिट्टी के दीपक अच्छे लगते है जो दुःख और सुख से युक्त इस संसार को प्रकाशित करते हैं। मुझे तो दुःखों का साथ ही अच्छा लगता है।

विशेष : मानव जीवन में उत्पन्न वेदना की अनुभूति को प्रतिपादित किया है।
भाषा – शुद्ध हिन्दी खड़ी बोली है।
शैली – भावात्मक गीति शैली है।
रस-छन्द – मुक्तक छंद, गुण-माधुर्य, संपूर्ण पद में पद मैत्री है।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
वे सूने से नयन, नहीं-
जिनमें बनते आँसू-मोती;
वह प्राणों की सेज, नहीं-
जिनमें बेसुध पीड़ा सोती;
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘अधिकार’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसकी रचयिता महादेवी वर्मा हैं।

संदर्भ : उपरोक्त पद्यांश में कवयित्री अपने अज्ञान प्रियतम की विरह-पीड़ा पर अधिकार बनाये रखना चाहती हैं। वे सांसारिक जीवन में ही रहने की कामना करती है।

स्पष्टीकरण : महादेवी वर्मा अपने प्रियतम (परमात्मा) को संबोधित करते हुए कहती हैं कि मैने सुना है आपके स्वर्ग लोक में कभी कोई वियोग में, दुःख में रोता नहीं हैं। उनके आँसुओं से रहित नेत्र बड़े ही सूने-सूने से दिखते हैं। स्वर्ग के निवासियों के नेत्रों से कभी आँसू मोती बनकर नहीं छलकते हैं। वहाँ के लोग विरह-व्यथा से दुःखी होकर सेज पर नहीं सोते अर्थात उन्हें कभी विरहव्यथा नहीं सताती है। इस तरह की सेज जिस पर पीड़ा से व्यथित होकर लोग न सोते हो, उसकी मेरी कोई कामना नहीं है। मुझे तो यह सांसारिक सुख-दुःख ही अच्छे लगते हैं।

विशेष : साहित्यिक हिन्दी। खड़ी बोली का प्रयोग। छायावादी भाव की कविता। वियोग रस का निरूपण।

अधिकार कवयित्री परिचय :

बहुमुखी प्रतिभा संपन्न एवं प्रमुख छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा का जन्म 1907 ई. में फरूखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। माता के आदर्शमय चरित्र एवं आस्तिकता तथा नाना के ब्रजभाषा प्रेम से प्रभावित होकर आप बचपन से ही साहित्य की ओर उन्मुख हुईं। आपकी आरंभिक शिक्षा इंदौर में तथा उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई। घर पर ही संगीत और चित्रकला की शिक्षा भी दी गई। प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. (संस्कृत) के उपरांत महिला विद्यापीठ, प्रयाग में प्राचार्या के पद पर नियुक्त हुईं। गद्य और पद्य दोनों में निपुण महादेवी वर्मा को ‘यामा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आपकी साहित्य साधना के फलस्वरूप भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। आपकी मृत्यु 11 सितम्बर 1987 ई. को हुई।

  • काव्य ग्रंथ : ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘सांध्य गीत’, ‘दीपशिखा’, आदि।
  • गद्य रचनाएँ : ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘पथ के साथी’ आदि।

अधिकार कविता का आशय :

प्रस्तुत कविता महादेवी वर्मा की ‘नीहार’ काव्यग्रंथ से ली गई है। वेदना और करुणा आपके काव्य की अनुभूति है। जीवन की सार्थकता परिस्थितियों से मुकाबला करने में है, न कि पलायन करने में। फूल, तारे, वसंत, बादल आदि प्रकृति से अनेक बिम्बों का प्रयोग करके, जीवन के प्रति गहरी आस्था व्यक्त की गई है। वे अमरों के लोक को भी ठुकरा कर अपने मिटने के अधिकार को बचाये रखना चाहती हैं। निरंतर आगे बढ़ने के लिए कवयित्री संदेश देती हैं।

अधिकार कविता का भावार्थ :

1) वे मुस्काते फूल, नहीं-
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना;

कवयित्री अपने प्रियतम (परमात्मा) को संबोधित करती हुई कहती है- देव, मैंने सुना है कि तुम्हारे लोक में फूल सदैव मुस्काते हुए खिले रहते हैं, जिन्हें मुरझाना नहीं आता। तुम्हारे यहाँ दीप रूपी तारे भी हमेशा जगमगाते रहते हैं और वे बुझते नहीं है। महादेवी देवलोक की इस विशेषता को महत्वहीन मानती है। उनका कहना है कि फूलों की खूबसूरती खिलकर मुरझाने में और तारों की सुंदरता जगमगा कर बुझ जाने में है। जीवन का असली सौन्दर्य तो सुख और दुःख के साथ है।

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2) वे नीलम से मेघ, नहीं-
जिनको है घुल जाने की चाह,
वह अनन्त ऋतुराज, नहीं-
जिसने देखी जाने की राह!

कवयित्री कहती है- देव, आपके लोक में नीलम के समान बादल है जो कभी घुलते नहीं है। ऐसे बादल जिनमें घुलने की चाह, मिलकर बिखरने की चाह नहीं हो वे कृत्रिम ज्ञात पड़ते है। बादलों का महत्त्व तो घुलकर बरसने में ही है।
आपके यहाँ तो हमेशा एक ही ऋतु रहती है। वह पृथ्वी की तरह कभी बदलती नहीं है। ऋतुओं का काम तो आना और जाना है। परिवर्तन में ही तो जीवन का आनंद है।

3) वे सूने से नयन, नहीं-
जिनमें बनते आँसू-मोती;
वह प्राणों की सेज, नहीं-
जिनमें बेसुध पीड़ा सोती;

कवयित्री कहती हैं- देव, देवलोक के लोगों को कोई दुःख दर्द नहीं है। वहाँ किसी के भी आँखों में आँसू मोती बनकर नहीं गिरते है। सुख और दुःख तो जीवन का अभिन्न अंग है। दुःख है.तभी तो सुख का आनंद है। लगता है देवलोक दुःखों से घबराता है।
सुना है देवलोक में किसी को विरह वेदना नहीं होती। वहाँ अपने प्रियतम के वियोग में कोई तड़पता नहीं है। प्रेम का महत्त्व तो वियोग से, बिछड़ने से ही मालूम होता है।

4) ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं-
जिसने जाना मिटने का स्वाद!

कवयित्री कहती है- देव, तुम्हारे लोक में वेदना का अभाव है। अवसाद नहीं है। दुःख नहीं है। ऐसे लोक का क्या महत्त्व है? जब तक मनुष्य दुःख नहीं भोगे, अंधकार का अनुभव नहीं करे तब तक उसे सुख और जीवन के आनंद का अनुभव नहीं हो सकता। सुख और दुःख तो जीवन का दूसरा नाम है। जीवन का महत्तव प्रतिकूल स्थितियों से टकराकर आगे बढ़ने में है। जिसने जलना नहीं जाना, मिटना नहीं सीखा, उसे जीवन कैसे कह सकते हैं?

5) क्या अमरों का लोक मिलेगा?
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!

कवयित्री अंत में ईश्वर को संबोधित करती हुई कहती है – देव, आप मुझे उपहार में अमर लोक देना चाहते हैं। दुःख-दर्द रहित खुशी देना चाहते हैं। मगर हे देव, मुझे तो यही गतिशील संसार पसंद है। हे भगवान! मधुर पीड़ा से मर मिटने का अधिकार दो अर्थात् मुझे इसी लोक में छोड़ दो।

अधिकार Summary in Kannada

अधिकार Summary in Kannada 1

अधिकार Summary in Kannada 2

अधिकार Summary in English

This poem has been taken from poet Mahadevi Verma’s collection of poems titled ‘Nihaar’.
The poet says that the flowers that bloom and smile, they do not know how to wither and the stars that shine brightly, they do not know how to extinguish themselves. What is implied is that flowers always want to remain fresh and beautiful and the stars always want to keep shining brightly.

One is inspired by the clouds as well as the rainy season to be a cloud, which stays constant, rather than the clouds which dissolve into the rain. We are motivated by the king of seasons, the rainy season or the spring season, such that we wish that it always remains steady and does not leave.

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It is the order of life that we must accept whatever comes our way whenever it does. Only then can life be successful. In reality, we can only say that one’s life has been purposeful if one faces the difficulties that come, not if one runs away from problems.

The poet asks what is to be done with a world in which there is no destruction and in which there is no pain or suffering? One who has not learned to get burnt and one who has not learned to get destroyed, what use is such a life?

The world moves at a fast pace. Life and death are the eternal truths of this world. Will we be blessed to enter the world of immortality? Will we be blessed with divine compassion? However, the poet dismisses the offer of a world of immortality. She beseeches God that it is her right to die and be wiped away.

कठिन शब्दार्थ :

  • भाना – अच्छा लगना;
  • ऋतुराज – वसंत ऋतु;
  • अनंत – जिसका अंत न हो;
  • सेज – शय्या;
  • अवसाद – दुःख;
  • उपहार – भेंट।

2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 2 कर्तव्य और सत्यता

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 2 कर्तव्य और सत्यता

कर्तव्य और सत्यता Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
हम लोगों का परम धर्म क्या है?
उत्तर:
कर्त्तव्य करना हम लोगों का परम धर्म है।

प्रश्न 2.
कर्त्तव्य करने का आरम्भ पहले कहाँ से शुरू होता है?
उत्तर:
कर्तव्य करने का आरंभ पहले घर से ही शुरू होता है।

प्रश्न 3.
कर्त्तव्य करना किस पर निर्भर है?
उत्तर:
कर्त्तव्य करना न्याय पर निर्भर है।

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प्रश्न 4.
कर्त्तव्य करने से क्या बढ़ता है?
उत्तर:
कर्त्तव्य करने से चरित्र की शोभा बढ़ती है।

प्रश्न 5.
धर्म-पालन करने में सबसे अधिक बाधा क्या है?
उत्तर:
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता है।

प्रश्न 6.
मन ज्यादा देर तक दुविधा में पड़ा रहा तो क्या आ घेरेगी?
उत्तर:
यदि मन कुछ काल तक दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता निश्चित रूप से आ घेरेगी।

प्रश्न 7.
झूठ बोलने का परिणाम क्या होगा?
उत्तर:
झूठ बोलने का परिणाम यह होगा कि काम नहीं होगा और दुःख भोगना पड़ेगा।

प्रश्न 8.
किसे सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है?
उत्तर:
सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है।

प्रश्न 9.
जो मनुष्य सत्य बोलता है, वह किससे दूर भागता है?
उत्तर:
जो मनुष्य सत्य बोलता है, वह आडंबर से दूर भागता है और उसे दिखावा नहीं रुचता है।

प्रश्न 10.
किनसे सभी घृणा करते हैं?
उत्तर:
झूठे से हर कोई घृणा करते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
कर्तव्य पालन और सत्यता में कैसा संबंध है?
उत्तर:
कर्तव्य पालन और सत्यता में बडा घनिष्ठ संबंध है।

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प्रश्न 2.
बहुत-से लोग नीति और आवश्यकता के बहाने किस की रक्षा करते हैं?
उत्तर:
बहुत-से लोग नीति और आवश्यकता के बहाने झूठ की रक्षा करते हैं।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
घर और समाज में मनुष्य का जीवन किन-किन के प्रति कर्तव्यों से भरा पड़ा है?
उत्तर:
प्रारंभ में कर्तव्य की शुरुआत घर से ही होती है क्योंकि माता-पिता की ओर माता पिता का कर्तव्य बच्चों के ओर दिख पड़ता है। इसके अलावा पति-पत्नी, स्वामी-सेवक और स्त्री-पुरुष के परस्पर अनेक कर्तव्य होते है। घर के बाहर मित्रों, पड़ोसियों और अन्य समाज में रहनेवालों के प्रति भी हमारे कर्तव्य होते हैं। हमारे कर्तव्य घर के प्रति, घरवालों के प्रति और समाज में रहनेवाले लोगों के प्रति अगर हम न करे तो हम लोगों की दृष्टि से गिर जाते हैं। बड़ों का आदर, गुरुजनों का सम्मान सबकी मदद जैसे घर के कर्तव्य है वैसे ही रास्ते पर न थूकना, सबसे सभ्य व्यवहार रखना आदि सामाजिक कर्तव्य होते हैं।

प्रश्न 2.
मन की शक्ति कैसी है?
उत्तर:
‘कर्त्तव्य और सत्यता’ निबन्ध में डॉ. श्यामसुंदर दास कहते हैं कि हम लोगों के मन में एक ऐसी शक्ति है जो हमें सभी बुरे कामों को करने से रोकती है और अच्छे कामों की ओर हमारी प्रवृत्ति को झुकाती है। यह बहुधा देखा गया है कि जब कोई बुरा काम करता है तब बिना किसी के कहे आप ही लजाता है और मन में दुःखी होता है। इसलिए हमारा यह धर्म है कि हमारी आत्मा हमें जो कहे, उसके अनुसार हम करें। हमारा मन किसी काम को करने से हिचकिचाए और दूर भागे तब कभी उस काम को नहीं करना चाहिए। दृढ़विश्वास और साहस से मन को धर्म-पालन करने की ओर लगाना चाहिए।

प्रश्न 3.
धर्म-पालन करने के मार्ग में क्या-क्या अड़चनें आती हैं?
उत्तर:
धर्मपालन करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य-मार्ग में एक ओर तो आत्मा के भले और बुरे कामों का ज्ञान और दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। मनुष्य इन दोनों के बीच पड़ा रहता है। अगर उसका मन पक्का हुआ तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपने धर्म का पालन करता है। अगर स्वार्थ में पड़कर दुविधा में पड़ जाएगा तो वह धर्म-पालन के विरुद्ध काम करेगा। इसलिए आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दे, हम वही काम करे।

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प्रश्न 4.
अंग्रेज़ी-जहाज बीच समुद्र में डूबते समय पुरुषों ने कैसे अपना धर्म निभाया?
उत्तर:
अंग्रेजी जहाज़ में छेद होने के कारण जब जहाज डूबने लगा, तो जहाज पर के पुरुषों ने जितनी भी औरतें और बच्चे थे उन सब को नाव पर चढ़ाकर बिदा कर दिया। बाकी सारे पुरुष छत पर इकट्ठा होकर भगवान की प्रार्थना करते ज्यों कि त्यों खड़े रहे और नाव डूब गई। वे मर गए लेकिन उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। उन्होंने अपना यह धर्म समझा कि खुद का प्राण देकर स्त्रियों और बच्चों के प्राण उन्होंने बचाए।

प्रश्न 5.
झूठ की उत्पत्ति और उसके कई रूपों के बारे में लिखिए।
उत्तर:
झूठ की उत्पत्ति पाप, कुटिलता और कायरता के कारण होती है। बहुत से लोग नीति और आवश्यकता के अनुसार झूठ बोलने का बहाना बनाते हैं। संसार में बहुत से ऐसे नीच लोग है जो झूठ बोलकर अपने को बचा लेते हैं। लेकिन यह सब सच नहीं झूठ बोलना पाप का ही काम है और उससे कोई काम भी नहीं होता। झूठ बोलना और भी कई रूपों में देख पड़ता है। जैसे चुप रहना, किसी बात को बढ़ाकर कहना, किसी बात को छिपाना, भेद बदलना, दूसरों के हाँ में हाँ मिलाना, वचन देकर पूरा न करना आदि।

प्रश्न 6.
मनुष्य का परम धर्म क्या है? उसकी रक्षा कैसे करनी चाहिए?
उत्तर:
मनुष्य का परम धर्म है – ‘सत्यता के साथ कर्त्तव्य पालन करना।’ सत्य बोलने को सबसे श्रेष्ठ मानना चाहिए और कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए, चाहे उससे कितनी ही अधिक हानि क्यों न होती हो। सत्य बोलने से ही समाज में हमारा सम्मान हो सकेगा और हम आनंदपूर्वक अपना समय बिता सकेंगे क्योंकि सच्चे को सब लोग चाहते हैं और झूठे से सभी घृणा करते हैं। यदि हम सदा सत्य बोलना अपना धर्म मानेंगे तो हमें अपने कर्त्तव्य-पालन करने में कुछ भी कष्ट न होगा और बिना किसी परिश्रम और कष्ट के हम अपने मन में संतुष्ट और सुखी बने रहेंगे। अपनी आत्मा के कहने के अनुसार दृढ़ विश्वास और साहस से काम लेकर सत्य की रक्षा करनी चाहिए।

प्रश्न 7.
‘कर्तव्य पालन और सत्यता के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।’ कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कर्तव्य पालन और सत्यता के बीच बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसका वर्णन करते हुए डॉ. श्यामसुंदर दास कहते हैं – जो मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करता है, वह अपने कामों और वचनों में सत्यता का बर्ताव भी रखता है। वह ठीक समय पर उचित रीति से अच्छे कामों को करता है। संसार में कोई काम झूठ बोलने से नहीं चल सकता। यदि किसी घर के सब लोग झूठ बोलने लगें तो कोई काम न हो सकेगा और सब लोग बड़ा दुःख भोगेंगे। अतएव सत्यता को सबसे ऊँचा स्थान देना उचित है।

III. ससंदर्भ स्पष्टीकरण कीजिए :

प्रश्न 1.
‘जिधर देखो उधर कर्त्तव्य ही कर्तव्य देख पड़ते हैं।’
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ. श्यामसुन्दर दास हैं।
संदर्भ : लेखक ने कर्त्तव्य के महत्व के बारे में बताते हुए इसे कहा है।
स्पष्टीकरण : लेखक कहते हैं कि कर्त्तव्य करना हम लोगों का परम धर्म है और जिसके न करने से हम लोग औरों की दृष्टि में गिर जाते हैं। कर्त्तव्य करने का आरम्भ पहले घर से ही होता है, क्योंकि यहाँ बच्चों का कर्त्तव्य माता-पिता की ओर और माता-पिता का कर्त्तव्य लड़कों की ओर दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी, स्वामी-सेवक और स्त्री-पुरुष के परस्पर अनेक कर्तव्य हैं। घर के बाहर हम मित्रों, पड़ोसियों और प्रजाओं के परस्पर कर्त्तव्यों को देखते हैं। इस तरह समाज में जिधर देखों उधर कर्त्तव्य ही कर्त्तव्य दिखाई देते हैं।

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प्रश्न 2.
‘कर्तव्य करना न्याय पर निर्भर है।’
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ. श्यामसुन्दर दास हैं।
संदर्भ : कर्त्तव्य करने की महत्ता का वर्णन करते हुए लेखक इस वाक्य को पाठकों से कहते हैं।
स्पष्टीकरण : डॉ. श्यामसुन्दर दास कहते हैं कि कर्त्तव्य करना हम लोगों का परम धर्म है। संसार में मनुष्य का जीवन कर्त्तव्यों से भरा पड़ा है। घर में, पारिवारिक सदस्यों के बीच और समाज में मित्रों, पड़ोसियों और प्रजाओं के बीच मनुष्य को अपना कर्त्तव्य निभाना पड़ता है। समाज के प्रति, देश के प्रति सच्चा कर्त्तव्य निभाने से हम लोगों के चरित्र की शोभा बढ़ती है। कर्त्तव्य करना न्याय पर निर्भर है। ऐसे सामाजिक न्याय को समझने पर हम लोग प्रेम के साथ कर्त्तव्य निभा सकते हैं।

प्रश्न 3.
‘इसलिए हमारा यह धर्म है कि हमारी आत्मा हमें जो कहे, उसके अनुसार हम करें।’
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ. श्यामसुन्दर दास हैं।
संदर्भ : लेखक ने धर्म और आत्मा के बारे में कहा है कि हमारी आत्मा जो कहती है उसका पालन करना ही हमारा धर्म है।
स्पष्टीकरण : लेखक धर्म और आत्मा के बारे में कहते हैं कि हमारी आत्मा हमें जो कहती है, वही कार्य करना हमारा धर्म है। हमारा मन बड़ा विलक्षण है। यह हमें बुरे कर्म करने से रोकता है। चोरी करने के पश्चात् हमारा मन हमें पश्चाताप के लिए मजबूर करता है। बुरा कर्म करनेवाला लज्जित हो जाता है।

प्रश्न 4.
‘इसी प्रकार जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।’
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘कर्तव्य और सत्यता’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ. श्यामसुन्दर दास हैं।
संदर्भ : प्रस्तुत वाक्य को लेखक ने स्वार्थी लोगों के स्वभाव के बारे में बताते हुए कहा हैं।
स्पष्टीकरण : लेखक स्वार्थी लोगों के बारे में कह रहे हैं कि जो स्वार्थी लोग अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित भी होते हैं और लोग उनसे घृणा भी करते हैं।

प्रश्न 5.
‘सत्य बोलने से ही समाज में हमारा सम्मान हो सकेगा और हम आनंदपूर्वक हमारा समय बिता सकेंगे।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके लेखक डॉ. श्यामसुन्दर दास हैं।
संदर्भ : लेखक सत्यता की महत्ता का वर्णन करते हुए यह वाक्य पाठकों से कहते हैं।
स्पष्टीकरण : लेखक कर्त्तव्य और सत्यता के बारे में कहते हैं कि कर्त्तव्य करना हम लोगों का परम धर्म है। कर्त्तव्य और सत्यता के बीच घना सम्बन्ध है। यदि हम सत्यता के साथ अपने कर्तव्य का पालन करेंगे तो हमारे चरित्र की शोभा और बढ़ेगी। इसलिए हम सब लोगों का परम धर्म है कि सत्य बोलने को सबसे श्रेष्ठ मानें और कभी झूठ न बोलें, चाहे उससे कितनी ही अधिक हानि क्यों न होती हो। सत्य बोलने से ही समाज में हमारा सम्मान हो सकेगा और हम आनंद पूर्वक अपना समय बिता सकेंगे क्योंकि सच्चे को सब चाहते हैं और झूठे से सभी घृणा करते हैं। अगर हम कर्तव्य पालन में सत्य मार्ग अपनाएँगे तो हम अपने मन में सदा संतुष्ट और सुखी बने रहेंगे।

IV. वाक्य शुद्ध कीजिए :

प्रश्न 1.
मन में ऐसा शक्ति है।
उत्तर:
मन में ऐसी शक्ति है।

प्रश्न 2.
तुम तुम्हारे धर्म का पालन करो।
उत्तर:
तुम अपने धर्म का पालन करो।

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प्रश्न 3.
उसे दिखावा नहीं रुचती है।
उत्तर:
उसे दिखावा नहीं रुचता है।

प्रश्न 4.
लोगों ने झूठी चाटुकारी करके बड़े-बड़े नौकरियाँ पा लीं।
उत्तर:
लोगों ने झूठी चाटुकारी करके बड़ी-बड़ी नौकरियाँ पा लीं।

प्रश्न 5.
मनुष्य के जीवन कर्त्तव्य से भरा पड़ा है।
उत्तर:
मनुष्य का जीवन कर्त्तव्य से भरा पड़ा है।

V. कोष्ठक में दिये गए उचित शब्दों से रिक्त स्थान भरिए :

(सम्मान, घृणा, सत्य, कर्त्तव्य, प्रवृत्ति)

प्रश्न 1.
सच्चाई की ओर हमारी …………… झुकती है।
उत्तरः
प्रवृत्ति

प्रश्न 2.
मनुष्य का परम धर्म ………….. बोलना है।
उत्तरः
सत्य

प्रश्न 3.
स्वार्थी लोग अपने …………… पर ध्यान नहीं देते।
उत्तरः
कर्त्तव्य

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प्रश्न 4.
कुत्सित लोगों से सभी ………….. करते हैं।
उत्तरः
घृणा

प्रश्न 5.
सत्य बोलने से हमारा ………….. होगा।
उत्तरः
सम्मान

VI. निम्नलिखित वाक्यों को सूचनानुसार बदलिए :

प्रश्न 1.
झूठे से सभी घृणा करते हैं। (भविष्यत् काल में बदलिए)
उत्तरः
झूठे से सभी घृणा करेंगे।

प्रश्न 2.
वह मेरी किताब की चोरी करता है। (भूतकाल में बदलिए)
उत्तरः
उसने मेरी किताब चोरी की।
अथवा
वह मेरी किताब चोरी करता था।

प्रश्न 3.
हमारा जीवन सदा अनेक कार्यों में व्यस्त रहेगा। (वर्तमान काल में बदलिए)
उत्तरः
हमारा जीवन सदा अनेक कार्यों में व्यस्त रहता है।

VII. लिंग पहचानिए :

शक्ति, काम, धर्म, दृष्टि, बात, नौकरी, मार्ग, मिठाई।

  • स्त्रीलिंग – दृष्टि, बात, नौकरी, मिठाई।
  • पुल्लिंग – मार्ग, काम, धर्म, शक्ति।

VIII. निम्नलिखित शब्दों के साथ उपसर्ग जोड़कर नए शब्दों का निर्माण कीजिए :

चरित्र, स्वार्थ, धर्म, मान, सत्य।

उपसर्ग + शब्द = नए शब्द

  1. सत् + चरित्र = सच्चरित्र
  2. निः + स्वार्थ = निःस्वार्थ
  3. अ + धर्म = अधर्म
  4. अप + मान = अपमान
  5. अ + सत्य = असत्य

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IX. निम्नलिखित शब्दों में से प्रत्यय अलग कर लिखिए :

सत्यता, अस्थिरता, चंचलता, मनुष्यता, आवश्यकता, कायरता।

  1. सत्यता = सत्य + ता
  2. अस्थिरता = अस्थिर + ता
  3. चंचलता = चंचल + ता
  4. मनुष्यता = मनुष्य + ता
  5. आवश्यकता = आवश्यक + ता
  6. कायरता = कायर + ता

X. अन्य वचन रूप लिखिए :

नौकरी, स्त्री, रीति, वस्तु, आज्ञा।

  1. नौकरी – नौकरियाँ
  2. स्त्री – स्त्रियाँ
  3. रीति – रीतियाँ
  4. वस्तु – वस्तुएँ
  5. आज्ञा – आज्ञाएँ

XI. विलोम शब्द लिखिए :

प्रारम्भ, सत्य, धर्म, उन्नति, सफल, ऊँचा, अच्छा, आदर, निर्बल, स्थिर।

  1. प्रारम्भ × अंत
  2. सत्य × असत्य
  3. धर्म × अधर्म
  4. उन्नति × अवनति
  5. सफल × विफल (असफल)
  6. ऊँचा × नीचा
  7. अच्छा × बुरा
  8. आदर × अनादर
  9. निर्बल × सबल
  10. स्थिर × अस्थिर

कर्तव्य और सत्यता लेखक परिचय :

मूर्धन्य साहित्यकार तथा भाषाविद् श्यामसुंदर दास जी का जन्म 1875 ई. में काशी में हुआ। आपने 1897 ई. में बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। आपने हिन्दू स्कूल में अध्यापन कार्य किया। तदोपरांत लखनऊ के कालीचरन स्कूल में हैड मास्टर रहे। आप 1921 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए। डॉ. दास में हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा थी। आपने विद्यार्थी काल में ही अपने दो सहयोगियों की सहायता से 16 जुलाई 1893 में नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना की। आपने जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिए लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषाविज्ञान, अनुसंधान, पाठ्य पुस्तक और संपादित ग्रंथों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य भवनों तक पहुँची। आपकी साहित्य साधना की महत्ता को स्वीकारते हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने ‘साहित्य वाचस्पति’ तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने डी.लिट्. की उपाधि से गौरवान्वित किया। 1945 ई. में आपका स्वर्गवास हुआ।

  • मौलिक कृतियाँ : ‘नागरी वर्णमाला’, ‘साहित्य लोचन’, ‘भाषा विज्ञान’, ‘हिन्दी भाषा का विकास’, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’, ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’, ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘भाषा रहस्य’, ‘मेरी आत्म कहानी’ आदि।
  • संपादन : ‘चंद्रावली’, ‘रामचरितमानस’, ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘हिन्दी वैज्ञानिक कोश’, ‘कबीर ग्रंथावली’, ‘सरस्वती’ आदि।

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कर्तव्य और सत्यता पाठ का आशय :

प्रस्तुत निबंध डॉ. श्यामसुंदर दास द्वारा लिखित ‘नीति-शिक्षा’ नामक ग्रंथ से लिया गया है। इस निबंध में लेखक ने हमें अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनने के लिए प्रेरित किया है। वे सत्यता को खुले रूप में अपनाने का आग्रह करते हैं। झूठ बोलना, पाप कार्य करना, कायरता जैसे दुर्गुणों को छोड़कर सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। आपके विचार अत्यंत प्रेरणादायक हैं। विद्यार्थियों के मन में ‘कर्त्तव्य और सत्यता’ के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से इस पाठ का चयन किया गया है।

कर्तव्य और सत्यता Summary in Hindi

कर्त्तव्य करना हम लोगों का परम धर्म है। कर्त्तव्य करने का आरंभ घर से ही शुरू होता है। कर्त्तव्य करना न्याय पर निर्भर है। इससे हमारा सन्तोष और आदर बढ़ता है। घर के बाहर, समाज में भी मित्रों, पड़ोसियों, नागरिकों के परस्पर कर्तव्यों को देखा जा सकता है। इस प्रकार संसार में मनुष्य का जीवन कर्त्तव्यों से भरा पड़ा है। मनुष्य समाज में रहता है। अतः आस-पास के लोगों के प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति हर एक के कई कर्त्तव्य होते हैं। कर्तव्यों के पालन से चरित्र की शोभा बढ़ती है।

मन की शक्ति हमें बुरे कर्मों से रोकती है और अच्छे कर्मों की ओर मोड़ती है। बुरे कर्मों से मन दुखी होता है और पछतावा होता है। अतः इन चीजों से सदा बचते रहना चाहिए। कुछ लोग ठग विद्या को अपनाकर झूठ का सहारा लेकर, चाटुकारिता को अपनाकर धन कमाते हैं। जीवन में आगे बढ़ते हैं और समाज में सम्मान पाते हैं। बुराई से भरे इस मार्ग को नहीं अपनाना चाहिए। सन्मार्ग पर चलने वालों को समाधान होता है, उन्हें तृप्ति मिलती है।

धर्म के मामले में चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता बाधा डालती है। स्वार्थी प्रवृत्ति भी अड़चन पैदा करती है। आलस्य और भले-बुरे कर्मो का ज्ञान, यह भी बाधक है। डूबते जहाज का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि पुरुषों ने अपने प्राणों की चिंता किए बिना स्त्रियों को बचाने का कर्तव्य-पालन किया। कर्त्तव्य और सत्यता का चोली-दामन का रिश्ता है। संसार में कोई काम झूठ बोलने से नहीं चल सकता। कुछ लोग अप्रिय सत्य का सहारा लेकर झूठ बोलते हैं। लेखक की दृष्टि में यह पाप है। ऐसे लोगों की पोल एक दिन खुल ही जाती है।

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संसार में कई लोग ऐसे हैं, जो झूठ बोलने को चतुराई समझते हैं। कई प्रकार के झूठ बोलनेवाले लोग संसार को नष्ट कर देते हैं। मनुष्य का परम धर्म है सत्य बोलना। सत्य बोलने से ही समाज में हमारा सम्मान बढ़ता है। लेखक अंत में ‘सत्यम् वद, धर्मम चर’ की उक्ति के माध्यम से कहते हैं कि सत्य बोलने से ही धर्म की रक्षा होती है। इस प्रकार कर्त्तव्य और सत्यता से सुख और संतोष की प्राप्ति होती है।

कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada

कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada 1
कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada 2
कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada 3
कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada 4
कर्तव्य और सत्यता Summary in Kannada 5

कर्तव्य और सत्यता Summary in English

As human beings, our foremost duty is to do our work. Work begins at home. Doing our duty is a question of justice. Doing our duty increases our satisfaction and self-respect. When we step out of our home and into society, we are obliged to work mutually, in association with friends, neighbours and townsfolk. In this manner, a person’s whole life is filled with various responsibilities and duties. Man is a social animal. Therefore, there are many duties that a man has towards his fellow beings, towards society and towards the nation. By doing our duty, we improve upon our character.

The power of the mind can prevent us from doing an evil deed and instead, turn us towards good deeds. Evil deeds make our mind unhappy and we feel regret. Therefore, we must always stay away from bad deeds. Some people use the art of trickery and deceit, some make use of lies and falsehood, and some turn to flattery and false praise to get ahead in life and to earn money. Such people also get ahead in life, make a name for themselves and earn respect in society.

However, one must not walk down this path. Those who walk on the righteous path have their doubts and objections removed, they are reconciled to the truth and they find satisfaction and gratification in life.

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The volatility of the intellect, the instability of our goals and objectives, and the weaknesses of our mind are all obstacles in the path of righteousness. A selfish nature also creates hindrances. Laziness and ignorance of right and wrong are also impediments. The example of a sinking ship has been given often to show that men have taken up the obligation of saving women’s lives even at the cost of their own. Duty and truth have a very close relationship. In life, no work can be done by telling lies. Some people swear upon the truth and tell lies. According to the author, this is a great sin. Such people are exposed sooner or later.

In the world, there are many people who think that telling lies is nothing but smartness. Many different types of liars have brought ruin to the world. Speaking the truth is the foremost duty and responsibility of every person. Only by speaking the truth does our respect in society increase. In conclusion, the writer tells us of a proverb – ‘Satyam vada, dharma chakra’ – which means that only by telling the truth can righteousness be preserved in the world. In this manner, doing our duty and telling the truth give us happiness and satisfaction in life.

कठिन शब्दार्थ :

  • निर्भर – अवलंबित;
  • हिचकिचाना – आगे-पीछे देखना;
  • चाटुकार – चापलूसी करनेवाला, खुशामद करनेवाला;
  • ठग-विद्या – धोखा देने की कला;
  • पोत – जहाज;
  • कुत्सित – नीच, अधम;
  • भेष – वेष

मुहावरा :

  • पोल खुलना – रहस्य प्रकट होना।

2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 12 बिहारी के दोहे

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 12 बिहारी के दोहे

बिहारी के दोहे Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
किस वस्तु को पाकर मनुष्य उन्मत्त होता है?
उत्तर:
कनक अर्थात् सोने को पाकर मनुष्य उन्मत्त होता है।

प्रश्न 2.
भगवान कब प्रसन्न होते हैं?
उत्तर:
भगवान सच्चे मन से स्मरण करने वाले भक्त से प्रसन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
बाँसुरी किस रंग की है?
उत्तर:
बाँसुरी हरे रंग की है।

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प्रश्न 4.
प्रेमी चित्त कब उजला होता है?
उत्तर:
प्रेमी चित्त ज्यों-ज्यों श्याम के रंग में रंग जाता है, त्यों-त्यों उज्ज्वल होता है।

प्रश्न 5.
सम्पत्ति रुपी सलिल के बढ़ने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
सम्पत्ति रूपी सलिल (पानी) के बढ़ने से मन रूपी सरोज (कमल) बढ़ता जाता है।

प्रश्न 6.
वस्तुएँ कब सन्दर प्रतीत होती हैं?
उत्तर:
वस्तुएँ समय-समय पर सुन्दर प्रतीत होती हैं।

प्रश्न 7.
पातक, राजा और रोग किसे दबाते हैं?
उत्तर:
पातक (पापी), राजा और रोग – ये तीनों दुर्बल लोगों को दबाते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
बिहारी के अनुसार मन कैसा होता है?
उत्तर:
बिहारी के अनुसार मन कच्चा होता है।

प्रश्न 2.
किसकी गति को समझना मुश्किल है?
उत्तर:
प्रेमी हृदय की गति को समझना मुश्किल है।

प्रश्न 3.
सम्पत्ति रूपी सलिल के घटने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
सम्पत्ति रूपी सलिल के घटने से मन रूपी सरोज बढ़ जाता है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
बिहारी ने दोनों कनक के संबंध में क्या कहा है?
उत्तर:
बिहारी ने ‘कनक’ का शब्द का अर्थ दो तरह से किया है। वे कहते है एक कनक याने धतुरा जिसके प्राशन करने से नाश चढ जाता है, दूसरा अर्थ है ‘सोना’ सोने को देख इन्सान पगला जाता है इस तरह दोनों से, धतुरे से और सोनेसे – मादकता बढ़ जाती है। दोनों को पाकर मनुष्य पगला जाता है।

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प्रश्न 2.
सम्पत्ति रूपी पानी और मन रूपी कमल के संबंध में बिहारी के क्या विचार हैं?
उत्तर:
ज्यों-ज्यों सम्पत्ति रूपी पानी बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों मन रूपी कमल की बेल बढ़ती जाती है। बिहारी कहते हैं कि पानी के घटने पर भी कमल की नाल घटती नहीं या सूखती नहीं; भले ही उसकी जड़ें ही क्यों न मुरझा जाए। अर्थात् वर्षा ऋतु में पानी के बढ़ने से नाल फिर पानी पर तैरने लगती है।

प्रश्न 3.
सब वेद और स्मृतियाँ क्या बताते हैं?
उत्तर:
बिहारी यहाँ पर वेदशात्र आदि में ज्ञानी लोगो ने जो बात कही है उसके बारे में बात रहे है। वह कह रहे है दुर्बलों को पापी, राजा और रोग दबाते है। इन्ही लोगों के सामने वह दब जाते है। इसलिए हमे चाहिए कि इस दुर्बल न बने, कमजोर को सभी दबाते है। पापी लोग उन्ही को दबाते है। कमजोर शरीर पर रोग सभी हमला करते है।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
कवि बिहारी के अनुसार भगवान किस प्रकार की भक्ति से प्रसन्न होते हैं?
उत्तर:
बिहारी कहते हैं – जप करने, माला फेरने एवं चंदन का तिलक लगाने जैसी बाहरी क्रियाओं से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते हैं। इन बाह्य आचरणों से सच्ची भक्ति नहीं होती है। ईश्वर तो केवल सच्चे मन से की गई भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
बिहारी भगवान कृष्ण के प्रति अनुरक्त मन की गति का वर्णन किस प्रकार करते हैं?
उत्तर:
कवि बिहारी भगवान कृष्ण से प्रेम करने वाले मन की दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं- मन की इस दशा को कोई नहीं समझ सकता है। प्रत्येक वस्तु काले रंग में डूबने से काली हो जाती है किन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न यह मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग (कृष्ण की भक्ति) में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत (पवित्र) होता जाता है।

प्रश्न 3.
बिहारी समय-समय पर बदलनेवाले मन की रुचि के बारे में क्या कहते हैं?
उत्तर:
बिहारी समय-समय पर बदलने वाले मन की रूचि के बारे में बताते हुए कहते हैं कि समय-समय पर सभी वस्तुएँ सुन्दर लगती है और मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जबकि इस संसार में न तो कोई रूपवान है और न ही कोई कुरूप है। जिसकी रुचि जिस तरफ ज्यादा होती है, उसके लिए वही चीज़ ज्यादा अच्छी हो जाती है।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
कनक कनक तैं सौगुनौ, मादकता अधिकाइ।
उहि खाएं बौराइ, इहिं पाऐं ही बौंराइ।।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि बिहारी जी ने यहाँ स्वर्ण, अर्थात् धन, धतूरे से सौगुना अधिक उन्मत्त करने वाला कहा है।

भाव स्पष्टीकरण : प्रस्तुत दोहे में बिहारी लाल ने स्वर्ण और धतूरे की मादकता का वर्णन किया है। स्वर्ण में धतूरे से सौ गुनी अधिक नशा होती है। क्योंकि धतूरे को खाने से आदमी बावला होता है और स्वर्ण को पाने मात्र से ही बावला होता है।

विशेष : यमक अलंकार।

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प्रश्न 2.
अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूप, सरू, बाइ।
सो ताकौ सागरू जहाँ, जाकी प्यास बुझाइ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि बिहारी इस दोहे के माध्यम से कहते है कि जिसका जिसमें अभीष्ट सध जाये, वही उसके निमित्त सब कुछ है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा ।

भाव स्पष्टीकरण : इस दुनिया में अति गहरे और अति उथले पानी के स्रोत हैं। जैसे – सागर, नदी, कूप, सरोवर और कुँआ। बिहारी लाल कहते हैं कि जहाँ जिसकी प्यास बुझ जाए वही उसके लिए सागर के समान है। भाव यह है कि संसार में छोटे-बड़े कई दानी हैं। जिसकी इच्छा जहाँ पूर्ण हो जाए, उस के लिए वही बड़ा दानी है।

प्रश्न 3.
जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के मध्य युगीन कविता ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है जिसके कवि बिहारीलाल हैं।

संदर्भ : बिहारी जी इस नीतिपरक दोहे के माध्यम से सांसारिक ज्ञान को सामने ला देते हैं और कहते हैं कि बाहरी दिखावा और पाखण्ड व्यर्थ है, क्योंकि भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखण्ड से नहीं।

भाव स्पष्टीकरण : प्रस्तुत दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि बाहरी दिखावा, पाखण्ड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखण्ड से नहीं। जप करना, माला पहनना, छापा और तिलक लगाना इन सब प्रकार के पाखण्डों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती है। बल्कि जब तक तेरा मन कच्चा है, तब तक तेरा यह सारा नाचा अर्थात् पाखण्ड व्यर्थ है, इसलिए व्यक्ति को विषय-वासनाएँ मिटाकर और बाहरी आडम्बरों को त्यागकर सच्चे मन से ईश्वर की उपासना करनी चाहिए क्योंकि राम अर्थात् भगवान तो सच्ची भावना से प्रसन्न होते हैं।

विशेष : भाषा – ब्रज और संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रयोग।
भाव – भक्ति और नीति परक।

प्रश्न 4.
बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत फिरि न घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : सम्पत्ति रूपी सलिल के बढ़ने से जो परिणाम होता है, उसका वर्णन इस दोहे में मिलता है।

भाव स्पष्टीकरण : बिहारी लाल कहते हैं कि सम्पत्ति रूपी पानी जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे मन रूपी सरोज फैलता जाता है। अर्थात् मन की इच्छाएँ एवं प्रलोभन में वृद्धि होती जाती है। लेकिन सम्पत्ति रूपी पानी जैसे-जैसे घटता है, मन रूपी कमल संकुचित नहीं होता बल्कि पूर्ण रूप से मुरझा जाता है। इसलिए मन की इच्छाओं को काबू में रखना चाहिए नहीं तो मानव जीवन में आनंद की क्षति हो जाती है।

विशेष : नीति परक दोहा। अलंकार : अनुप्रास।

प्रश्न 5.
समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होई॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : इस दोहे में बिहारी लाल ने यह बताने का प्रयास किया है कि कोई भी वस्तु सुन्दर या असुन्दर नहीं होती।

भाव स्पष्टीकरण : यह समय-समय की बात होती है कि कोई वस्तु हमें किसी समय सुंदर प्रतीत होती है तो वही वस्तु किसी और समय सुंदर नहीं प्रतीत होती। यह मन की रुचि और अरुचि पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह है कि अपने आप में कोई वस्तु सुंदर या कुरुप नहीं होती।

विशेष : नीति परक दोहा।

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प्रश्न 6.
अधर-धरत हरि कैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष-रंग होति॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

भाव स्पष्टीकरण : कृष्ण का सौंदर्य-वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि कृष्ण जब हरे रंग की बाँसुरी अपने लाल होठों पर रखते हैं तो उस मुरली पर कृष्ण के नीले शरीर के ऊपर के पीले रंग के वस्त्र (पितांबरी) की छवि पड़ती है तो यह सब मिलकर आसमान के नीले रंग में दिखाई देनेवाले इंद्रधनुष का आभास दे रही है।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
कहै यहै श्रुति सुम्रत्यौ, यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसकहीं, पातक, राजा, रोग॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि इस शाश्वत सत्य को उद्घाटित करते हैं कि इस दुनिया में निर्बल व्यक्ति को सभी दबाते हैं।

भाव स्पष्टीकरण : कवि बिहारी कहते हैं कि संसार में पाप-कर्म, राजा और रोग, यह तीनों हमेशा निर्बल को ही सताते हैं। कमजोर व्यक्ति कई बार परिस्थितिवश पाप कार्य में लीन हो जाते हैं। पाप को छिपाने की ताकत भी उनमें नहीं होती है परिणामस्वरूप वे उसके कारण दण्डित भी किये जाते हैं। राजा (शासक) का क्रोध भी निर्बल लोगों पर ही उतरता है। भूख और चिन्तावश निर्बल लोग रोगी हो जाते हैं। उनमें बीमारी से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं रह जाती है और वे बीमारी से ग्रसित होते जाते हैं।

विशेष : बिहारी ने ब्रजभाषा में यह दोहा रचा है। शैली वर्णनात्मक है। छन्द दोहा है।

बिहारी के दोहे कवि परिचय :

गागर में सागर भरने वाले रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि बिहारी लाल का जन्म ग्वालियर के पास ‘बसुआ’ गोविंदपुर नामक गाँव में हुआ। बिहारी अपने समय के असाधारण कवि थे। ‘बिहारी सतसई’ सबसे अधिक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध रचना है। इस ग्रंथ पर अनेक भाषाओं में टीकाएँ लिखी गई हैं। आपके दोहों का मुख्य विषय श्रृंगार वर्णन है। आपने भक्ति और नीति विषयक दोहों की भी अत्यंत सफलता पूर्वक रचना की है।

‘बिहारी सतसई’ श्रृंगार का तो सागर है ही, साथ ही मानव-जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं की मार्मिक एवं निर्माणपरक झाँकी भी प्रस्तुत करती है। आपके नीति के दोहे सांसारिक ज्ञान को सामने ला देते हैं। सतसई में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की सामग्री उपस्थित है। विषय की यह व्यापकता रीतिकाल के अन्य कवियों में नहीं मिलती। बिहारी का भाषा भंडार अत्यंत विस्तृत है। भाव और परिस्थिति के अनुकूल ब्रज और संस्कृत भाषा के शब्दों का सुंदर प्रयोग किया है।

बिहारी के दोहे का आशय :

प्रस्तुत दोहों में कवि बिहारीलाल ने श्रीकृष्ण-गोपिका का प्रेम, मन की शुद्धता, दान की महत्ता और मन की दुर्बलता आदि का मनमोहक वर्णन किया है।

बिहारी के दोहे का भावार्थ :

1) कनक कनक तैं सौगुनौ, मादकता अधिकाइ।
उहिं खाएं बौराइ, इहिं पाएं ही बौंराइ ॥1॥

सोना (धन) धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक नशीला होता है; क्योंकि धतूरे को तो खाने पर उन्माद होता है, परन्तु सोने को तो पाकर ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। धन-दौलत का नशा पागल बना देनेवाला होता है।
अर्थात् धन बढ़ने पर मनुष्य में अहंकार आ जाता है। अहंकार के वश होकर उसे भले-बुरे का ज्ञान ही नहीं रहता। किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान न रहना ही मादकता है।

शब्दार्थ :
कनक – स्वर्ण, धतूरा;
मादकता – नशा;
बौराइ – बावला, पागल होना|

2) जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु ॥2॥

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बाहरी पाखंड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखंड से नहीं। इस आशय को कवि इस दोहे में व्यक्त करता है- जप करने की माला हाथ में लेकर जप करने से, सारे शरीर पर चंदन का छाप लगाने से अथवा माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम नहीं होगा। आशय यह कि थे सब बाहरी दिखावे हैं। इनमें प्रभु-प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल अधूरी भक्ति वाले अपरिपक्व लोग ही इन व्यर्थ के कर्मकांडों में लगे रहते हैं। जब तक मनुष्य के मन में छल, कपट, पाप और माया-मोह के विकार भरे हुए हैं, तब तक उसको संसार के भ्रम एवं माया-जाल में पड़कर नाचना पड़ता है। क्योंकि राम अर्थात् भगवान तो सच्ची भक्ति से प्रसन्न होते हैं।

शब्दार्थ :
जपमाला – जप करने की माला;
सरै – पूरा होना;
काँचै – कच्चा;
राँचै – प्रसन्न होना।

3) अधर-धरत हरि मैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष-रंग होति ॥3॥

एक सखी कृष्ण की शोभा का वर्णन कर रही है- जब कृष्ण बाँसुरी को होठों पर रखते हैं, तब उस पर होठों की, आँखों की और पीले वस्त्र की चमक पड़ती है। इसके कारण वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्र-धनुष की तरह रंग-बिरंगी हो उठती है। होठों का रंग लाल है, आँखों का रंग सफेद और काला है, वस्त्र का रंग पीला है। इन सबके प्रभाव से हरे रंगवाली बाँसुरी का रंग-बिरंगा हो जाना स्वाभाविक है।
श्रीकृष्ण के सामिप्य से सामान्य बाँसुरी का इन्द्र-धनुष सा रंग का हो जाना कह कर वह व्यंजित करती है कि यदि आप उनके समीप चलेंगी तो आपकी शोभा भी रंगीली हो जाएगी।

शब्दार्थ :
अधर – होंठ;
डीठि – दृष्टि;
पट – वस्त्र;
जोति – चमक।

4) अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूप, सरू, बाइ।
सो ताकौ सागरू जहाँ, जाकी प्यास बुझाइ ॥4॥

कवि कहता है- वैसे तो इस जगत में गहरे और सभी प्रकार के कुएँ, सरोवर, नदियाँ और बावडियाँ हैं। परन्तु जिसकी प्यास जहाँ बुझ जाए, उसके लिए तो वहीं सागर है। इसी प्रकार यदि बडे आदमी से उसका कोई काम न निकले और छोटे आदमी से काम निकल जाए तो उसके लिए वह छोटा व्यक्ति ही सागर के समान महान है।

शब्दार्थ :
अगाधु – गहरे;
औथरौ – उथले;
सरू – सरोवर;
बाइ – कुआँ।

5) या अनुरागी चित्तकी, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यों बू स्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्जलु होइ ॥5॥

यहाँ किसी भक्त का कथन है। वह कृष्ण के प्रेम में डूबे मन की दशा का वर्णन कर रहा हैं- इस अनुरागी मन की विलक्षण अवस्था को कोई नहीं समझ सकता। ज्यों-ज्यों यह श्याम के रंग में डूबता हैं, त्यों-त्यों उज्जवल होता है। यहाँ विलक्षणता यह है कि काले रंग में डूबने से वस्तु काली होनी चाहिए, परन्तु मन श्याम रंग में डूबकर श्वेत हो रहा है। यहाँ विरोध का आभास मात्र है, परन्तु यथार्थ में विरोध नहीं हैं। इस दोहे का अर्थ श्रृंगार रस में भी किया जा सकता है। श्रृंगार रस में नायिका का कथन सखी के प्रति माना जाएगा।

हे सखी! इस मेरे अनुरागी चित्त की गति कोई नहीं जानता। यह कृष्ण (नायक) के प्रेम में ज्यों-ज्यों लीन होता है, त्यों-त्यों व्याकुल न होकर अधिकाधिक प्रेम-मग्न होता है। कोई भी वस्तु जब काले रंग से डुबोई जाती है तो वह काली हो जाती है और उस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता। किन्तु चित्त की विलक्षणता यह है कि ज्यों-ज्यों वह श्याम के रंग में डूबता जाता है त्यों-त्यों उज्जवल होता है अर्थात् श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण के अनुराग से प्राणी मात्र का मन पवित्र हो जाता है।

शब्दार्थ :
अनुरागी – प्रेमी;
गति – चाल;
बूडै – डूबे;
स्याम रंग – साँवला रंग या कृष्ण का प्रेम।

6) बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत फिरि न घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ॥6॥

कवि कहता है- सम्पत्ति रूपी जल के बढ़ने के साथ-साथ मन रूपी कमल की बेल बढ़ जाती है। परन्तु जब सम्पत्ति रूपी जल घटना आरंभ होता है, तब वह कमल की नाल छोटी नहीं होती, चाहे जड़ से ही सूख क्यों न जाये! वर्षा ऋतु में जब तालाब में पानी बढ़ता है, तब कमल की नाल लंबी होती जाती है और पानी के ऊपर-ही-ऊपर तैरती रहती है, जिससे फूल पानी के ऊपर रहता है। परन्तु जब तालाब का पानी घटता है, तब नाल छोटी नहीं होती।
इसी प्रकार जब सम्पत्ति बढ़ती है तब मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, परन्तु जब सम्पत्ति कम हो जाती है तब इच्छाएँ कम नहीं होती, चाहे मनुष्य बिल्कुल नष्ट ही क्यों न हो जाय।

शब्दार्थ :
सलिलु – पानी;
सरोजु – कमल;
बरु – बल्कि;
समूल – जड़ सहित;
कुम्हिलाइ – मुरझा जाना।

7) समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होइ ॥7॥

यह समस्त सृष्टि उस प्रभु की रचना है। इसमें न कुछ सुन्दर है और न असुन्दर। अपनेअपने अवसर पर सब ओर समस्त वस्तुएँ सुन्दर लगती हैं। मनुष्य के मन की चाह जिस समय और जितनी होती है, उस समय उस वस्तु में उसको उतनी ही शोभा दिखाई पड़ती है।
बिहारी ने यहाँ सौन्दर्य का बड़ा ही व्यापक रूप प्रस्तुत किया है। उनके लिए समस्त सृष्टि ही सौन्दर्यमयी है। केवल मन की रुचि चाहिए। मन की रुचि के अनुसार ही प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य दिखाई पड़ेगा।

शब्दार्थ :
समै – समय;
रुचि – पसंद;
जेती – जितनी।

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8) कहै यहै श्रुति सुम्रत्यौ, यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसकहीं, पातक, राजा, रोग ॥8॥

कवि कहता है – सब वेद और स्मृतियाँ तथा ज्ञानी लोग यही एक बात बताते हैं कि राजा, रोग और पाप – ये तीनों दुर्बल को ही दबाते हैं। भाव यह है कि दुर्बलता सबसे बड़ा पाप है। यदि कोई बलवान व्यक्ति पाप भी करता है, तो पाप नहीं माना जाता। इसी प्रकार राजा और रोग भी दुर्बल को ही दबाते हैं, सशक्त को कोई नहीं दबा सकता।

शब्दार्थ :
श्रुति – वेद;
सुम्रत्यौ – स्मृति भी;
सयाने लोग – ज्ञानी लोग;
निसकहीं – दुर्बल, अशक्त;
पातक – पाप।

बिहारी के दोहे Summary in Kannada

बिहारी के दोहे Summary in Kannada 1

बिहारी के दोहे Summary in Kannada 2

बिहारी के दोहे Summary in English

The following are a collection of verses by the poet Biharilal.
1. In the first verse, the poet Bihari says that gold is a hundred times more intoxicating than thorn apple or datura. This is because only when one eats thorn apple or datura does one get intoxicated; however, just upon acquiring gold, a person becomes intoxicated. The intoxication of wealth drives people crazy.

2. The outward presence is useless. According to Biharilal, God is pleased by devotion and sincerity, and not by outward pretences. In this verse, the poet expresses his thoughts about this – chanting, telling the beads, vermilion and other outward pretences will not do us any service – it will not bring us any closer to God. As long as the mind is crude and immature, all the outward pretences are useless. This is because God is pleased only by the true devotion of the mind.

3. One of the female devotees is describing Lord Krishna – when the Lord puts the flute to his lips, it takes on the colour of the lips, the colour of the eyes, and the colour of the yellow cloth that the Lord is wearing. Due to this, the green coloured flute takes on the multi-coloured nature of the rainbow (the bow of Indra). The lips are red, the eyes are black and white while the cloth is pink in colour. Under the influence of these colours, it is quite natural for the green coloured flute to appear multi-coloured.

4. The poet says that in this world there are many forms and sizes of water bodies like wells, streams, rivers, and lakes. However, that which quenches one’s thirst is as good as an ocean for that person. The intended meaning is that, in the world, there are many donors both big and small. However, the donor who satisfies a person’s needs is the greatest donor and is like an ocean for that person.

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5. This verse can be understood in two ways – pertaining to beauty or pertaining to devotion. One meaning is that the companion of Lord Krishna is saying to the Lord – Oh Lord, my love for you is so wonderful that nobody can understand it. The more it drowns in this darkness (Lord Krishna was dark-complexioned), the brighter it becomes. The other meaning is that a devotee is singing praises of the Lord – Oh Lord, my enamoured mind cannot be understood by anyone. The more it drowns in devotion to the Lord, the purer it becomes.

6. The poet says that when there is an increase in the level of water, which is like treasure to plants, the lotus (which is like the human mind) root begins to grow longer. However, when water levels begin to recede, the root of the lotus does not diminish. It stays as long as it has grown, even if it dries up completely. When the water level increases, the longer root enables the lotus flower to float on top of the surface of the water. However, when the water level reduces, the length of the root remains the same.

7. The poet says that at appropriate times, all the things in the world appear beautiful. In reality, no object is either beautiful or ugly. Depending on how much we desire an object at a given point in time, it appears that much more beautiful at that time.

8. The poet says that all scholarly men, sages, and great thinkers say that kings, disease, and sin – only these three trouble the weak. What is implied is that weakness is the greatest evil. If a strong person commits a sin, it is not even considered a sin. In this manner, even kings and disease only strike and prey upon the weak. The strong are never pushed down by anyone.

2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 10 सूरदास के पद

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 10 सूरदास के पद

सूरदास के पद Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
अपने आपको कौन भाग्यशालिनी समझ रही हैं?
उत्तर:
अपने आपको गोपिकाएँ भाग्यशालिनी समझ रही हैं।

प्रश्न 2.
गोपिकाएँ किसे संबोधित करते हुए बातें कर रही हैं?
उत्तर:
गोपिकाएँ उद्धव को संबोधित करते हुए बातें कर रही हैं।

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प्रश्न 3.
श्रीकृष्ण के कान में किस आकार का कुंडल है?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के कान में मकर के आकार का कुंडल है।

प्रश्न 4.
वाणी कहाँ रह गई?
उत्तर:
वाणी मुखद्वार तक आकर रुक गई।

प्रश्न 5.
कौन अंतर की बात जानने वाले हैं?
उत्तर:
सूरदास के प्रभु कृष्ण अंतर की बात जानने वाले हैं।

प्रश्न 6.
श्रीकृष्ण के अनुसार किसने सब माखन खा लिया?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के अनुया नान सखा ने सब माखन खा लिया हैं।

प्रश्न 7.
सूरदास किसकी शोभा पर बलि जाते हैं?
उत्तर:
सूरदास कृष्ण और गोपी की शोभा पर बलि जाते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
गोपिकाओं को किनकी आँखों से लगाव है?
उत्तर:
गोपिकाओं को ऊधौ की आँखों से लगाव है।

प्रश्न 2.
सुमन से खुशबू कौन लेकर आता है?
उत्तर:
सुमन से पवन खुशबू लेकर आता है।

प्रश्न 3.
मधुप के मन में किसके प्रति अनुराग पैदा हुआ?
उत्तर:
मधुप के मन में सुमन के प्रति अनुराग पैदा हुआ।

प्रश्न 4.
अंग-अंग में किसका संचार हुआ?
उत्तर:
अंग-अंग में आनंद का संचार हुआ।

प्रश्न 5.
विरह-व्यथा किनकी दूर हुई?
उत्तर:
गोपिकाओं की विरह-व्यथा दूर हुई।

प्रश्न 6.
नंद-नंदन कहाँ पर देखे गये?
उत्तर:
नंद-नंदन यमुना तट पर देखे गये।

प्रश्न 7.
श्रीकृष्ण ने कौन-से रंग का वस्त्र धारण किया हैं?
उत्तर:
श्रीकृष्ण ने पीले रंग के वस्त्र धारण किये हैं।

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प्रश्न 8.
श्रीकृष्ण के तन से किसकी खुशबू आ रही हैं?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के तन से चंदन की खुशबू आ रही हैं।

प्रश्न 9.
श्रीकृष्ण के प्रेम में कौन मग्न हो जाती हैं?
उत्तर:
श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपिकाएँ मग्न हो जाती हैं।

प्रश्न 10.
श्रीकृष्ण की आँखें कैसी हैं?
उत्तर:
श्रीकृष्ण की आँखें कमलनयन के समान हैं।

प्रश्न 11.
श्रीकृष्ण से सकुचाते हुए कौन मिलती हैं?
उत्तर:
श्रीकृष्ण से ब्रजनारियाँ सकुचाते हुए मिलती हैं।

प्रश्न 12.
कान्हा क्या करते हुए पकड़े गये?
उत्तर:
कान्हा माखन चोरी करते हुए पकड़े गये।

प्रश्न 13.
कान्हा ने कब-कब ग्वालिनी को सताया?
उत्तर:
कान्हा ने निसि-बासर (रात-दिन) ग्वालिनो को सताया।

प्रश्न 14.
ग्वालिनी का क्रोध जब शांत हो जाता है तब वह क्या करती है?
उत्तर:
ग्वालिनी का क्रोध जब शांत हो जाता है तब वह कृष्ण को हृदय से लगा लेती है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
गोपिकाएँ अपने आपको क्यों भाग्यशालिनी समझती हैं?
उत्तर:
गोपिकाएँ अपने आपको भाग्यशालिनी समझती हैं क्योंकि जिन आँखों से उद्धव ने श्रीकृष्ण को देखा था, वे आँखें अब उन्हें मिल गई हैं अर्थात् गोपिकाएँ उद्धव के आँखों में श्याम की आँखें, श्याम की मूरत देख रहें हैं। जैसे भोरें के प्रिय सुमन की सुगंध को हवा ले आती है वैसे ही उद्धव को देखकर उन्हें अत्यधिक आनन्द हो रहा है तथा उनके अंग-अंग सुख में रंग गया है। जैसे दर्पण में अपना रूप देखने से दृष्टि अति रुचिकर लगने लगती है, उसी प्रकार उद्धव के नेत्र रूपी दर्पण में कृष्ण के नेत्रों के दर्शन कर गोपिकाओं को बहुत अच्छा लग रहा है और अपने आपको भाग्यशालीनी समझती हैं।

प्रश्न 2.
श्रीकृष्ण के रूप सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं- गोपिकाओं ने यमुना नदी तट पर श्रीकृष्ण को देख लिया। वे मोर मुकुट पहने हुए हैं। कानों में मकराकृत कुण्डल धारण किये हुए हैं। पीले रंग के रेशमी वस्त्र पहने हुए हैं। उनके तन पर चन्दन-लेप है। वे अत्यंत शोभायमान हैं। उनके दर्शन मात्र से गोपिकाएँ तृप्त हुईं। हृदय की तपन बुझ गई। वे सुन्दरियाँ प्रेम-मग्न हो गईं। उनका हृदय भर आया। सूरदास कहते हैं कि प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं और गोपिकाओं के व्रत को पूरा करने के लिए ही पधारे हैं।

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प्रश्न 3.
सूरदास ने माखन चोरी प्रसंग का किस प्रकार वर्णन किया है?
उत्तर:
सूरदास गोपिकाओं के समर्पण भाव के बारे में बता रहे है। इसमें हमे यशोदा और ग्वालिनी के वात्सल्य प्रेम के बारे में जान सकते है। चोरी करते हुए कान्हा पकडे गए गोपियाँ कहती है – कान्हा तुम तो दिन-रात हमे सताते हो, आज जाके तुम हमारे हाथ आए हो। जितना भी माखन-दही हो सब खा लेते हो। अब तुम्हारा यह खेल खत्म हुआ। मै तुम्हे भलीभाँति जानती हूँ। तुम्हीं माखन चोर हो। कान्हा के हाथ पकडकर, ‘माखन जितना चाहे माँग के खाते’ कहने पर बड़े ही निरागसता से कान्हा कहते है – ‘तुम्हारी सौगंध, माखन मैनें नहीं खाया मेरे सारे दोस्त ही खा लेते है और मेरा नाम बताते है।’ उसके मुखपर लगा माखन देखा और उसकी प्यारी, तुतलाती बोलों को सुनकर गोपिका के हृदय ममता से भर उठता है। कान्हा का यह रूप उसे इतना लुभावना लगता है कि उसका गुस्सा भाग जाता है और वह कान्हा को गोदी में उठा लेती है। यह दृश्य देखकर सूरदास कहते है ऐसे कान्हा और गोपिका पर तो मैं बलि बलि जाऊँ।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
ऊधौ हम आजु भई बड़-भागी।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके, ते अँखियाँ हम लागीं।
जैसे समन बास लै आवत, पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद होत है तैसैं, अंग-अंग सुख रागी।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘सूरदास के पद’ से लिया गया है, जिसके रचयिता सूरदास जी हैं।

संदर्भ : प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव को संबोधित करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! आज हम स्वयं को बहुत भाग्यशाली मान रहे हैं क्योंकि जो आँखे हमारे प्यारे कृष्ण के दर्शन करके आयीं हैं उन्हीं आँखों के दर्शन हमें मिल गए हैं।

भाव स्पष्टीकरण : सूरदास ने भ्रमर गीत में ब्रज की गोपिकाओं की विरह-व्यथा का बहुत ही मार्मिक ढंग से वर्णन किया है। श्रीकृष्ण कंस को मारने मथुरा गए लेकिन बहुत दिनों तक वापस ब्रज नहीं आये। यहाँ श्रीकृष्ण के बिना गोपिकाएँ बहुत ही उदास थीं। वे कृष्ण की राह देखती थीं। श्रीकृष्ण अपने सखा उद्धव को ब्रज के बारे में जानने के लिए भेजते हैं। उद्धव से गोपिकाएँ कहती हैं – ‘आज हम बहुत ही भाग्यशालिनी बन गईं। जिन आँखों से तुमने श्याम को देखा उन आँखों को देखने का सौभाग्य हमें मिल रहा है। जैसे फूल सुगंध ले आता है, हवा प्यारे भौरे को, वैसे ही हमें श्रीकृष्ण का संदेश मिल गया है। श्रीकृष्ण के बारे में सुनकर बहुत ही आनंद हो रहा है और हमारे अंग-अंग में सुख का अनुभव हो रहा है नहीं तो हमारा विरह-व्यथा से जीना मुश्किल हो जाता।

विशेष : अनुप्रास अलंकार, रूपक अलंकार। ब्रज भाषा।
गोपिकाओं का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम व्यक्त हुआ है।

प्रश्न 2.
जमुना तट देखे नँद नंदन।
मोर-मुकुट मकराकृत-कुंडल, पीत-बसन तन चंदन।
लोचन तृप्त भए दरसन नैं उर की तपनि बुझानी।
प्रेम-मगन तब भई सुंदरी, उर गदगद, मुख-बानी।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘सूरदास के पद’ से लिया गया है, जिसके रचयिता सूरदास जी हैं।

संदर्भ : श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य का वर्णन इस में देखने को मिलता है।

भाव स्पष्टीकरण : ब्रज की नारियों ने जमुना तट पर श्रीकृष्ण को देख लिया। उन्होंने सिर पर मोर-मुकुट, कानों में मकर के आकार का कुण्डल और शरीर पर पीले रंग का रेश्मी वस्त्र धारण किया हुआ था। शरीर पर चन्दन लेपन से श्रीकृष्ण अत्यंत शोभायमान लग रहे थे। ऐसे श्रीकृष्ण के शोभायमान रूप के दर्शन कर ब्रज नारी की आँखें तृप्त हो गईं। उनके हृदय का ताप बुझ गया। वे श्रीकृष्ण के प्रेम में डूब गईं। उनका हृदय भर आया और वे उस अलौकिक आनंद का शब्दों में वर्णन न कर सकीं। वाणी मुख में ही रह गई।

विशेष : यहाँ श्रीकृष्ण के अलौकिक रूप-सौन्दर्य का वर्णन हुआ है।
अलंकारः अनुप्रास।
भाषाः ब्रज भाषा जो कोमलकान्त पदावली के लिए प्रसिद्ध है।

प्रश्न 3.
चोरी करत कान्ह धरि पाए।
निसि-बासर मोहिँ बहुत सतायौ अब हरि अरि हाथहिँ आए।
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही।
अब तो घात परे हौ लालन, तुम्है भलै मैं चीन्ही।
दोउ भुज पकरि, कहयौ कहँ जैहौ माखन लेउँ मँगाइ।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘सूरदास के पद’ से लिया गया है, जिसके रचयिता सूरदास जी हैं।

संदर्भ : उपरोक्त पद्यांश में एक ग्वालिन बाल कृष्ण को माखन चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ लेती है और उन पर क्रोध प्रकट करती है।

व्याख्या : सूरदास इस पद में कृष्ण के माखन चोरी पर रूष्ट ग्वालिन के भावों का वर्णन करते हैं। कृष्ण की रोज़-रोज़ की माखन चोरी से एक गोपी बहुत परेशान थी। कई दिनों से इंतजार में थी कि किसी प्रकार कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ा जाय। आज कृष्ण पकड़ में आ गए तो गोपी कहने लगी – हे कृष्ण, तुमने रात-दिन मुझे बहुत सताया है, रोज-रोज चोरी करके भाग जाते हो, किसी तरह आज पकड़ में आए हो। मेरा सारा दही मक्खन खा लिया और शरारत अलग से की कि सारे बर्तन फोड़कर चले गए। मैं अब-तक सही चोर को पहचान नहीं पाई थी, पर अब मेरे हाथ लगे हो। मैंने भी इस माखन चोर को भलीभाँति पहचान लिया है। इसके बाद गोपी ने कृष्ण के दोनों हाथ पकड़कर कहा – बोलो, अब कहाँ जाओंगे? कहो तो तुम्हारी माँ से सारा दही-मक्खन मँगवा लूँ, जितना तुमने खाया है।

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विशेष : ब्रज भाषा। वर्णनात्मक शैली का उपयोग। ‘वात्सल्य रस।

प्रश्न 4.
तेरी सौं मैं नेकुँ न खायौ, सखा गये सब खाइ।
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘सूरदास के पद’ पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सूरदास जी हैं।

संदर्भ : श्रीकृष्ण को ग्वालिन ने माखन चुराते पकड़ लिया है। कन्हैया को पकड़ लेने के बाद वह कहने लगी कि तुमने जितना माखन खाया है, वह यशोदा से मँगवा लूंगी। तब कन्हैया ग्वालिन को उत्तर देते हैं।

व्याख्या : सूरदास ने इस पद में बाल-कृष्ण की क्रीडाओं का मनोहारी चित्रण किया है। ग्वालिन ने चोरी करते हुए कान्ह को पकड़ लिया है। वह उन्हें खूब खरी खोटी सुना रही है। तब बालक कृष्ण बाल सुलभ उत्तर देते हैं, उससे ग्वालिन का गुस्सा शांत हो जाता है।
बालक कृष्ण कहते हैं कि मैं तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूँ कि मैंने थोड़ा-सा भी माखन नहीं खाया है। मेरे सब मित्रों ने खाया है। यह कहकर गोपाल ने उनके मुँह को देखा और हँस पड़े। उनके हँसते ही उस ग्वालिन का गुस्सा गायब हो गया। सूरदास कहते हैं कि ग्वालिन ने श्याम को हृदय से लगा लिया। सूरदास उनकी इस लीला पर बलि-बलि जाता है।

विशेष : ब्रज भाषा। श्री कृष्ण के माखन चोरी प्रसंग का सुन्दर वर्णन। सूरदास का बाल लीला वर्णन अनुपम है।

सूरदास के पद कवि परिचय :

सूरदास हिन्दी साहित्य के भक्ति काल के कृष्ण भक्ति शाखा के मूर्धन्य कवि हैं। आपका जन्म 1483 में दिल्ली के पास सीही नामक गाँव में एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूरदास ने महाप्रभु वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग की दीक्षा ली थी।

सूरदास के काव्य का मूलाधार ‘भागवत पुराण’ है। ‘सूरसागर’, ‘सूरसारावली’, ‘साहित्य लहरी’ आपकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। सूरदास की समस्त कीर्ति का आधार ‘सूरसागर’ है। जनश्रुति तथा वार्ता साहित्य के अनुसार इसमें सवा लाख पद थे किन्तु अब तक आठ-दस हजार पद ही प्रकाश में आ सके हैं।

सूरदास ने भक्ति के सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य भाव को स्वीकार किया है। सूरदास को अष्टछाप के कवियों में श्रेष्ठ माना जाता है।

सूरदास के पद पदों का आशय :

प्रस्तुत पदों में सूरदास ने श्रीकृष्ण के रूप सौन्दर्य, माखनचोरी प्रसंग और गोपिकाओं के समर्पण भाव का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। इसमें विविध भावमयी ब्रजभाषा का प्रयोग करते हुए सरस काव्य की सृष्टि की है।

सूरदास के पद पदों का भावार्थ :

1) ऊधौ हम आजु भई बड़-भागी।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके, ते अँखियाँ हम लागीं।
जैसे सुमन बास लै आवत, पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद होत है तैसैं, अंग-अंग सुख रागी।
ज्यों दरपन मैं दरस देखियत, दृष्टि परम रुचि लागी।
तैसैं सूर मिले हरि हमकौं, बिरह-बिथा तन त्यागी॥

गोपियाँ कहती हैं- हे उद्धव! आज हम सौभाग्यशाली हो गई हैं, धन्य-धन्य हो गई हैं; अपनी जिन आँखों से तुमने हमारे प्रिय कृष्ण को देखा है, वे आँखें अब हमें मिल गई हैं अर्थात् हम तुम्हारी आँखों में श्याम की आँखें, श्याम की मूरत देख रहें हैं। जैसे अनुरागी भौरे के प्रिय सुमन की गंध पवन ले आती है और उस गंध से बंधा भौंरा अपने प्रिय सुमन तक पहुँच जाता है, वैसे ही तुम्हें देखकर हमें आनन्द हो रहा है। तुम भी अपने अंग-अंग में कृष्ण का सुख राग (प्रेम) भर कर ले आए हो। जैसे दर्पण में अपना रूप देखने से दृष्टि अति रुचिकर लगने लगती है, उसी प्रकार तुम्हारे नेत्र रूपी दर्पण में कृष्ण के नेत्रों के दर्शन कर हमें बहुत अच्छा लग रहा है। जिन नेत्रों से तुमने श्याम को देखा है, उन्हीं नेत्रों में हम झांक कर देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार आज हमें साक्षात् श्याम ही मिल गए हैं और हमारे तन ने विरह-व्यथा को छोड़ दिया है, श्याम-मिलन की सुखानुभूति हमें हो रही है।

शब्दार्थ :
बड़-भागी – भाग्यशाली;
बिलोके – देखना;
सुमन – फूल;
मधुप – भ्रमर;
दरपन – आईना;
हरि – कृष्ण;
बिथा – व्यथा।

2) जमुना तट देखे नँद नंदन।
मोर-मुकुट मकराकृत-कुंडल, पीत-बसन तन चंदन।
लोचन तृप्त भए दरसन तैं उर की तपनि बुझानी।
प्रेम-मगन तब भई सुंदरी, उर गदगद, मुख-बानी।
कमल-नयन तट पर हैं ठाढ़े, सकुचहिं मिलि ब्रज नारी।
सूरदास-प्रभु अंतरजामी, ब्रत-पूरन पगधारी॥

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गोपियों ने नंदनंदन भगवान श्रीकृष्ण को यमुना किनारे पर नटवर-नागर वेश में देखा। सिर पर मोर मुकुट है, कानों में मकराकृत कुंडल हैं, कटि में पीतांबर और शरीर पर चंदन का लेप है। इस नटवर-नागर रूप के दर्शन मात्र से गोपियों के तृणित (प्यासे) नेत्र तृप्त हो गए। उनके हृदय में प्रज्वलित प्रेम की ज्वाला शान्त हो गई। वे सुंदर ब्रजबालाएँ प्रेम-मग्न हो गईं। उनका हृदय भर आया और वे उस अलौकिक आनंद का शब्दों में वर्णन न कर सकी। वाणी मुख में ही रह गई। कमल के समान सुंदर नेत्रवाले कृष्ण यमुना तट पर खड़े हैं, पर गोपियाँ लाजवश मिलने में संकोच कर रही हैं। सूरदास कहते हैं कि प्रभु तो सबके हृदय की बात को जानने वाले हैं, गोपियों ने प्रभु-मिलन का जो व्रत अपने हृदय में धारण किया था, उसे पूरा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आगे कदम बढ़ाकर गोपियों का स्वागत किया।

शब्दार्थ :
जमुना – यमुना;
तट – किनारा;
तन – शरीर;
लोचन – आँखें;
दरसन – दर्शन;
उर – हृदय;
बानी – वाणी;
सकुचहिं – संकोच करना;
अंतरजामी – अंतर्यामी।

3) चोरी करत कान्ह धरि पाए।
निसि-बासर मोहिँ बहुत सतायौ अब हरि अरि हाथहिँ आए।
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही।
अब तो घात परे हौ लालन, तुम्है भलै मैं चीन्ही।
दोउ भुज पकरि, कहयौ कहँ जैहौ माखन लेउँ मँगाइ।
तेरी सौं मैं नेहुं न खायौ, सखा गये सब खाइ।
मुख तन चितै, बिहॅसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ।।

कृष्ण की रोज़-रोज़ की माखन चोरी से एक गोपी बहुत परेशान थी। कई दिनों से इंतजार में थी कि किसी प्रकार कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ा जाय। आज कृष्ण पकड़ में आ गए तो गोपी कहने लगी – हे कृष्ण, तुमने रात-दिन मुझे बहुत सताया है, रोज-रोज चोरी करके भाग जाते हो, किसी तरह आज पकड़ में आए हो। मेरा सारा दही-मक्खन खा लिया और शरारत अलग से की कि सारे बर्तन फोड़कर चले गए। मैं अब-तक सही चोर को पहचान नहीं पाई थी, पर अब मेरे हाथ लगे हो। मैंने भी इस माखन चोर को भलीभाँति पहचान लिया है। इसके बाद गोपी ने कृष्ण के दोनों हाथ पकड़कर कहा – बोलो, अब कहाँ जाओगे? कहो तो तुम्हारी माँ से यह सारा दही-माखन मंगा लूँ, जितना तूने खाया है! कृष्ण ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया – मैं तेरी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैंने तेरा माखन थोड़ा-सा भी नहीं खाया है, यह तो सारे सखा मिलकर खा गए हैं। कृष्ण की इस भोली बात पर जैसे ही गोपी ने कृष्ण की ओर देखा तो कृष्ण मुस्कराने लगे। कृष्ण की इस मुस्कराहट पर मोहित गोपी का सारा क्रोध शान्त हो गया और मन में प्रेम भाव उदय हो गया। प्रेमभाव में गोपी ने कान्हा को अपने हृदय से लगा लिया। सूरदास कहते हैं कि मैं गोपी-कृष्ण के इस प्रेम भाव पर बलि-बलि जाता हूँ।

शब्दार्थ :
निसि-बासर – रात-दिन;
सखा – मित्र;
अचगरी – आश्चर्य।

सूरदास के पद Summary in Kannada

सूरदास के पद Summary in Kannada 1

सूरदास के पद Summary in Kannada 2

सूरदास के पद Summary in English

In this collection of verses, the poet Surdas pays glowing tributes to Lord Krishna’s beauty, his act of stealing butter, and his relationship with the milkmaids.

1. The milkmaids say to Uddhava (who is the friend and counsellor of Lord Krishna) that they too have become sacred and that they are now blessed because they can see Lord Krishna in the eyes of Uddhava, who has seen Lord Krishna himself; the milkmaids can see the figure of Krishna in the eyes of Uddhava. Just as the wind brings the sweet smell of flowers to the bee and following the scent, the bee reaches its beloved flower, similarly, the milkmaids are pleased to see Uddhava. Uddhava is filled to the brim with love for Lord Krishna, which the milkmaids feel blessed to be in the presence of. Just as one feels happy by looking at one’s reflection in the mirror, the milkmaids to are feeling happy looking at Uddhava’s eyes which carry in them the image of Lord Krishna. They feel happy to be looking into the same eyes that have seen Lord Krishna. Thus, Surdas says that in this manner, it is as if we have witnessed Lord Krishna in the flesh, and our longing for Krishna is gone since we feel as if we have met Lord Krishna in reality.

2. The milkmaid’s sight Lord Krishna on the banks of the river Yamuna. He is in one of His divine forms. He is wearing a crown of peacock feathers on His head, large fish-shaped earrings on His ears, a yellow silk cloth on his waist, and His body is covered with the paste of the sandalwood tree. Only a glimpse of this form of Lord Krishna has satisfied the eyes of the milkmaids, which were thirsting for a divine vision of the Lord. The fire that was raging in their hearts has been quenched. The beautiful maidens are enraptured with this vision of Lord Krishna. Their hearts began to beat faster, and due to the excess of love that they feel, they are unable to make any utterance. Their speech is only able to reach the mouth, but cannot be uttered by the tongue. The beautiful Lord Krishna (who is like a lotus flower in bloom) is standing on the banks of the river Yamuna, but the milkmaids are feeling shy to go forth and meet the Lord. The poet Surdas says that Lord Krishna knows what is in the heart of every person, and thus, understands the bashfulness of the milkmaids. The milkmaids had taken a vow in their hearts, to meet Lord Krishna and in order to fulfil their vow, Lord Krishna Himself comes forward and greets the milkmaids.

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3. Once, a milkmaid was very distressed because of Lord Krishna’s act of stealing butter daily. She was waiting for many days, hoping to catch Lord Krishna red-handed while he was stealing butter. Finally, the day that the milkmaid catches Lord Krishna red-handed in the act of stealing butter, she says to Him – “Oh Lord Krishna, you have troubled me day and night by stealing butter every day and running away; today I have caught you in the act. You ate all my curds and butter aside from your naughtiness with which you broke all the earthen vessels which were used to store the curds and butter. Until now I was unable to recognize the real thief, but now I have caught you in the act of stealing.

Now I have recognized the butter-thief very well.” After this, the milkmaid grabs Lord Krishna’s hands and asks Him where He will run away now. She asks him whether she should demand from His mother all the curds and butter that He has stolen and eaten. With great innocence, the young Lord Krishna swears upon the milkmaid that he has not eaten the curds and butter and that all his friends have eaten it together. When the milkmaid looks at Lord Krishna after He gives this excuse, He smiles at her. Lord Krishna’s wonderful smile melts away the anger of the milkmaid and her mind is filled with love instead. She embraces Lord Krishna. The poet Surdas says that he is mesmerized by this love and affection between the young Lord Krishna and the milkmaids.

2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 9 रैदासबानी

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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 9 रैदासबानी

रैदासबानी Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
रैदास किसकी रट लगाए हुए हैं?
उत्तर:
रैदास राम की रट लगाए हुए हैं।

प्रश्न 2.
अंग-अंग में किसकी सुगंध समा गई है?
उत्तर:
अंग-अंग में चंदन की/प्रभु की भक्ति का सुगंध समा गई है।

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प्रश्न 3.
चकोर पक्षी किसे देखता रहता है?
उत्तर:
चकोर पक्षी चान्द को देखता रहता है।

प्रश्न 4.
रैदास अपने आपको किसका सेवक मानते हैं?
उत्तर:
रैदास अपने आपको प्रभु राम जी का सेवक मानते हैं।

प्रश्न 5.
रैदास किस प्रकार जीवन का निर्वाह करने के लिए कहते हैं?
उत्तर:
रैदास श्रम या मेहनत करके जीवन का निर्वाह करने के लिए कहते हैं।

प्रश्न 6.
रैदास के अनुसार कभी भी क्या निष्फल नहीं जाता?
उत्तर:
रैदास के अनुसार कभी भी नेक कमाई निष्फल नहीं जाती।

प्रश्न 7.
रैदास किस राज्य की कामना करते हैं?
उत्तर:
रैदास ऐसे राज्य की कामना करते हैं, जहाँ सभी को अन्न मिले।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
रैदास अगर मोर हैं तब प्रभु जी क्या हैं?
उत्तर:
रैदास अगर मोर हैं तब प्रभु जी धन या बादल है।

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प्रश्न 2.
प्रभु जी के दीपक बनने पर रैदास क्या बन जाते हैं?
उत्तर:
प्रभु जी के दीपक बनने पर रैदास जी बाती या बत्ती बन जाते हैं।

प्रश्न 3.
प्रभु जी अगर मोती हैं तो धागा कौन है?
उत्तर:
प्रभु जी अगर मोती है तो धागा रैदास जी है।

प्रश्न 4.
‘सोने मिलत सुहागा’ मुहावरे का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘सोने मिलत सुहागा’ मुहावरे का अर्थ है खुशी के मौके पर एक और खुशी का मिलना।

प्रश्न 5.
रैदास भगवान से किस प्रकार की भक्ति करते हैं?
उत्तर:
रैदास भगवान से ‘दास्यभाव’ की भक्ति करते हैं।

प्रश्न 6.
रैदास कब प्रसन्न रहेंगे?
उत्तर:
जब सभी समान हो जाएंगे तब रैदास प्रसन्न रहेंगे।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
रैदास ने भगवान और भक्त के संबंध को कैसे वर्णित किया है?
उत्तर:
कवि संत रैदास जी भक्त और भगवान का अटूट सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि प्रभुजी आप चंदन हैं तो हम पानी हैं, आप यदि घना वन या जंगल हैं तो हम मोर हैं, आप यदि दीपक हैं तो हम बाती हैं, आप यदि मोती हैं तो हम धागा हैं और यदि आप स्वामी हैं तो हम आपके दास हैं; फिर हमारा संबंध अलग कैसे हो सकता है?

प्रश्न 2.
परिश्रम के महत्व के प्रति रैदास के क्या विचार हैं?
उत्तर:
परिश्रम के महत्व के प्रति रैदास जी कहते हैं कि संसार के हर मनुष्य को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। उनके अनुसार श्रम, लगन, निष्ठा व ईमान से किया गया प्रत्येक कार्य श्रेष्ठ व फलदायक होता है। मांगकर खाने की जगह परिश्रम की कमाई पर निर्भर रहना चाहिए। जो मनुष्य मेहनत करेगा, पसीना बहाएगा, उसका परिणाम सदा अच्छा ही होगा। ऐसे नेक कमाई कभी निष्फल नहीं होगी।

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प्रश्न 3.
रैदास ने किस प्रकार के राज्य का वर्णन किया है?
उत्तर:
संत रैदास ने रामराज्य का वर्णन किया है। वे कहते हैं- ऐसा राज्य होना चाहिए जिसमें सभी प्रजा को अन्न (आहार) मिले, जहाँ छोटे-बड़े, धनी-गरीब, दीन-दलित सभी को समान अधिकार मिले। सभी समान रूप से, सौहार्दता से जिएँ। वे परिश्रम करके खुशहाल रहें।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
अब कैसे छूटै राम रट लागी।
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के रैदासबानी’ से लिया गया है जिसके रचयिता संत रैदास हैं।

संदर्भ : कवि ने भगवान के प्रति पूरे समर्पण भाव को स्वीकारते हुए स्वयं को पानी तथा प्रभु को चंदन के रूप में स्वीकार किया है।

भाव स्पष्टीकरण : रैदास जी कहते हैं कि अब उनका मन राम में लग गया है। वह अब प्रभु-भक्ति से छूटेगा नहीं। वे कहते हैं – प्रभु जी चन्दन के समान है और हम पानी के समान है जिसके शरीर पर लगने से अंग-अंग सुगंध से भर गया है। प्रभु जी बादल के समान हैं और भक्त मोर के समान। आसमान में बादल दिखते ही मोर नाच उठता है। वैसे ही प्रभु का नाम सुनते ही भक्त रोमांचित हो जाता है। जिस प्रकार चकोर पक्षी चाँद को निहारता है वैसे ही रैदास प्रभु की ओर निहारते रहते हैं।

विशेष : अलंकारः अंत्यानुप्रास, दास्य भक्ति, शरणागत तत्व।

प्रश्न 2.
प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती,
जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी तुम मोती, हम धागा,
जैसे सोने मिलत सुहागा ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के रैदासबानी’ से लिया गया है जिसके कवि संत रैदास हैं।

संदर्भ : इसमें रैदास जी भक्त और भगवान के बीच के संबंध का वर्णन करते हैं।

भाव स्पष्टीकरण : भगवान और भक्त के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए रैदास जी कहते हैं कि भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु जी यदि दीप हैं तो भक्त वर्तिका के समान है। दोनों मिलकर प्रकाश फैलाते हैं। प्रभु जी यदि मोती हैं तो भक्त धागा है, दोनों मिलकर सुंदर हार बन जाते हैं। दोनों का मिलन सोने पे सुहागे के समान है।
दास्य भक्ति, शरणागत तत्व भी इसमें दर्शाया गया है। वे (रैदास) प्रभुजी को स्वामी मानते हैं और अपने को उनका दास या सेवक मानते हैं।

विशेष : दास्य भक्ति की पराकाष्ठा इसमें है।

प्रश्न 3.
ऐसा चाहो राज में,
जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोटा-बड़ो सभ सम बसै,
रैदास रहै प्रसन्न।।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘रैदासबानी’ नामक कविता से लिया गया है जिसके रचयिता संत रैदास हैं।

संदर्भ : प्रस्तुत पद में रैदास जी समाज के सभी वर्ग के लोगों के प्रति समान भाव से हितकारी एवं सुखी राज्य की कामना करते हैं।

स्पष्टीकरण : कवि संत रैदास इस पद के माध्यम से समाज के सभी वर्ग के लोगों के लिए चाहें वह छोटा हो या बड़ा एक ऐसे राज्य की कामना करते हैं जहाँ सभी सुखी हों, जहाँ सभी को अन्न मिले, जिसमें कोई भूखा-प्यासा न रहे, जहाँ कोई छोटा-बड़ा न होकर एक समान हो। ऐसे राज्य से रैदास को प्रसन्नता होती है।

विशेष : भाषा – ब्रज। भाव – भक्ति भावना, प्रेम भावना से परिपूर्ण।

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प्रश्न 4.
रैदास श्रम करि खाइहि,
जो लौ पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ,
कबहुँ न निहफल जाय।।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के रैदासबानी’ नामक कविता से लिया गया है जिसके रचयिता संत रैदास हैं।

स्पष्टीकरणः इस पद्य में रैदास ने श्रम की महत्ता पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार श्रम, लगन, निष्ठा व ईमान से किया गया प्रत्येक कार्य श्रेष्ठ व फलदायक होता है। रैदास स्वयं कड़ी मेहनत कर कार्य करना चाहते हैं। आजीवन इसी तरह श्रम साध कर अपनी जिन्दगी गुजारना चाहते हैं। ऐसे नेक कमाई कभी निष्फल नहीं होगी, ऐसा विश्वास रैदास को भरपूर है।

विशेष : भाषा – ब्रज। श्रम की महत्ता का महत्व दर्शाया है।

प्रश्न 5.
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी तुम घन बन, हम मोरा,
जैसे चितवत चंद चकोरा।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के रैदासबानी’ नामक कविता से लिया गया है, जिसके रचयिता संत रैदास जी हैं।

संदर्भ : रैदास जी ने भगवान राम को समर्पण भाव से स्वीकारते हुए स्वयं को दास के रूप में खुद को संबोधित किया है तो प्रभु को चंदन और स्वामी के रूप में स्वीकार किया है।

व्याख्या : रैदास जी कहते हैं कि अब उनका मन भगवान राम में लग गया है। वे कहते हैं – प्रभु जी चन्दन के समान है और हम पानी के समान जिसके शरीर पर लगने से अंग अंग सुगंधित हो जाता है। प्रभु जी बादल के समान हैं और भक्त मोर के समान। आसमान में बादल देखते ही मोर नाच उठता है, वैसे ही प्रभु का नाम सुनते ही भक्त बावला हो जाता है। जिस प्रकार चकोर पक्षी चाँद को निहारता है वैसे ही रैदास भी प्रभु को निहारते रहते है।

विशेष : भगवान के प्रति दास्यभाव प्रकट किया है।
सच्ची भक्ति और एक निष्ठता व्याप्त है।
समाज का व्यापक हित, एवं मानव प्रेम को स्थान मिला।

रैदासबानी कवि परिचय :

भक्ति काल के निर्गुण संतों में संत रैदास का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। आपका ज्ञान सत्संग एवं लौकिक अनुभव का प्रतिफल था। आप अपने आचरण में संत और साधना में भक्त थे। आपकी भक्ति सरल और सहज है। उसमें न तो योग-मार्ग की जटिलता है और न भक्ति का शास्त्रीय विधान। रैदास वस्तुतः प्रेमा भक्ति से अनुगत थे। आपकी वाणी में भक्ति भावना, समाज का व्यापक हित, मानव प्रेम आदि को स्थान मिला है। आपके भजन एवं उपदेशों से लोग प्रेरित होकर अनुयायी बन जाते थे। आपकी वाणी का प्रभाव समाज के सभी वर्गों पर विद्यमान था। संत रैदास जी ने अपने आचरण और व्यवहार से प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म और व्यवसाय के कारण महान नहीं बनता बल्कि विचारों की श्रेष्ठता और गुण के आधार पर ही श्रेष्ठ बनता है।

रैदासबानी कविता का आशय :

प्रस्तुत पदों में संत रैदास ने भगवान के प्रति अपना दास्यभाव प्रकट किया है। प्रभु को चंदन, दीपक, मोती और स्वामी मानते हुए अपने आपको पानी, बाती, धागा और दास माना है। परिश्रम से की गई कमाई को श्रेष्ठ बताया गया है और अन्त में एक सुखी राज्य की कामना की गई है।

रैदासबानी कविता का भावार्थ :

1) अब कैसे छूटै राम रट लागी।
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी।
प्रभु जी तुम घन बन, हम मोरा
जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती,
जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी तुम मोती, हम धागा,
जैसे सोने मिलत सुहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा
ऐसी भगति करै रैदासा ॥1॥

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कवि कहते हैं कि भगवान की ऐसी रट लग गई है कि वह अब छूट नहीं रही है। प्रभुजी आप चंदन है, हम पानी हैं। आप दीपक हैं, हम बाती हैं। आप मोती हैं, हम धागा हैं। आप स्वामी हैं और हम दास या सेवक हैं।
शब्दार्थ :
प्रभु – भगवान;
घन – बादल;
चकोरा – चकोर पक्षी;
बाती – बत्ती।

2) रैदास श्रम करि खाइहि,
जो लौ पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ,
कबहुँ न निहफल जाय ॥2॥

कवि इस पद में श्रम की महत्ता बताते हैं कि मनुष्य को कर्मयोगी बनना चाहिए। मेहनत की कमाई से खाना चाहिए। क्योंकि नेकी से की गई कमाई कभी भी निष्फल नहीं होती।
शब्दार्थ :
श्रम – मेहनत;
करि – करके;
निहफल – निष्फल।

3) ऐसा चाहो राज में,
जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोटा-बड़ो सभ सम बसै,
रैदास रहै प्रसन्न ॥3॥

अन्त में कवि एक ऐसे राज्य की कामना करते हैं कि जहाँ सभी सुखी हों, जहाँ सभी को अन्न मिले, कोई भूखा-प्यासा न हो और जहाँ कोई छोटा-बड़ा न होकर, सभी समान हो। ऐसे राज्य को देखकर रैदास प्रसन्न होते हैं।
शब्दार्थ :
सबन – सभी;
राज – राज्य;
सभ – सब।

रैदासबानी Summary in Kannada

रैदासबानी Summary in Kannada 1

रैदासबानी Summary in English

The following is a collection of verses by the saint Raidas.
In the first verse, the poet says that he has been uttering the Lord’s name and now it is becoming impossible for him to stop. The poet compares himself, a devotee, to the Lord. . He says that if the Lord is sandalwood, then I (the poet) am water. If the Lord is a flame, then the poet is a wick. If the Lord is a pearl, then the poet says that he is a thread. Finally, he says that the Lord is the almighty and he is a servant of the Lord.

In the second verse, Raidas explains the importance of hard work. He says that one must always work hard and feed oneself by one’s efforts. Raidas tells the reader that we must become a Karmayogi – One who believes it is one’s duty to put in efforts. When one works hard and earns his livelihood through moral means, his efforts never go unrewarded.

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In the third verse, Raidas imagines a kingdom where everyone is happy, and where everyone has enough food to eat. He imagines such a kingdom where no one is left wanting for food or water, and where without discrimination, everyone is equal and lives happily. Imagining such a kingdom makes Raidas happy.

1st PUC Business Studies Question Bank Chapter 3 Private, Public and Global Enterprises in Kannada

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