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Karnataka 2nd PUC Hindi Textbook Answers Sahitya Gaurav Chapter 12 बिहारी के दोहे

बिहारी के दोहे Questions and Answers, Notes, Summary

I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
किस वस्तु को पाकर मनुष्य उन्मत्त होता है?
उत्तर:
कनक अर्थात् सोने को पाकर मनुष्य उन्मत्त होता है।

प्रश्न 2.
भगवान कब प्रसन्न होते हैं?
उत्तर:
भगवान सच्चे मन से स्मरण करने वाले भक्त से प्रसन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
बाँसुरी किस रंग की है?
उत्तर:
बाँसुरी हरे रंग की है।

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प्रश्न 4.
प्रेमी चित्त कब उजला होता है?
उत्तर:
प्रेमी चित्त ज्यों-ज्यों श्याम के रंग में रंग जाता है, त्यों-त्यों उज्ज्वल होता है।

प्रश्न 5.
सम्पत्ति रुपी सलिल के बढ़ने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
सम्पत्ति रूपी सलिल (पानी) के बढ़ने से मन रूपी सरोज (कमल) बढ़ता जाता है।

प्रश्न 6.
वस्तुएँ कब सन्दर प्रतीत होती हैं?
उत्तर:
वस्तुएँ समय-समय पर सुन्दर प्रतीत होती हैं।

प्रश्न 7.
पातक, राजा और रोग किसे दबाते हैं?
उत्तर:
पातक (पापी), राजा और रोग – ये तीनों दुर्बल लोगों को दबाते हैं।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
बिहारी के अनुसार मन कैसा होता है?
उत्तर:
बिहारी के अनुसार मन कच्चा होता है।

प्रश्न 2.
किसकी गति को समझना मुश्किल है?
उत्तर:
प्रेमी हृदय की गति को समझना मुश्किल है।

प्रश्न 3.
सम्पत्ति रूपी सलिल के घटने का क्या परिणाम होता है?
उत्तर:
सम्पत्ति रूपी सलिल के घटने से मन रूपी सरोज बढ़ जाता है।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :

प्रश्न 1.
बिहारी ने दोनों कनक के संबंध में क्या कहा है?
उत्तर:
बिहारी ने ‘कनक’ का शब्द का अर्थ दो तरह से किया है। वे कहते है एक कनक याने धतुरा जिसके प्राशन करने से नाश चढ जाता है, दूसरा अर्थ है ‘सोना’ सोने को देख इन्सान पगला जाता है इस तरह दोनों से, धतुरे से और सोनेसे – मादकता बढ़ जाती है। दोनों को पाकर मनुष्य पगला जाता है।

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प्रश्न 2.
सम्पत्ति रूपी पानी और मन रूपी कमल के संबंध में बिहारी के क्या विचार हैं?
उत्तर:
ज्यों-ज्यों सम्पत्ति रूपी पानी बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों मन रूपी कमल की बेल बढ़ती जाती है। बिहारी कहते हैं कि पानी के घटने पर भी कमल की नाल घटती नहीं या सूखती नहीं; भले ही उसकी जड़ें ही क्यों न मुरझा जाए। अर्थात् वर्षा ऋतु में पानी के बढ़ने से नाल फिर पानी पर तैरने लगती है।

प्रश्न 3.
सब वेद और स्मृतियाँ क्या बताते हैं?
उत्तर:
बिहारी यहाँ पर वेदशात्र आदि में ज्ञानी लोगो ने जो बात कही है उसके बारे में बात रहे है। वह कह रहे है दुर्बलों को पापी, राजा और रोग दबाते है। इन्ही लोगों के सामने वह दब जाते है। इसलिए हमे चाहिए कि इस दुर्बल न बने, कमजोर को सभी दबाते है। पापी लोग उन्ही को दबाते है। कमजोर शरीर पर रोग सभी हमला करते है।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
कवि बिहारी के अनुसार भगवान किस प्रकार की भक्ति से प्रसन्न होते हैं?
उत्तर:
बिहारी कहते हैं – जप करने, माला फेरने एवं चंदन का तिलक लगाने जैसी बाहरी क्रियाओं से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते हैं। इन बाह्य आचरणों से सच्ची भक्ति नहीं होती है। ईश्वर तो केवल सच्चे मन से की गई भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
बिहारी भगवान कृष्ण के प्रति अनुरक्त मन की गति का वर्णन किस प्रकार करते हैं?
उत्तर:
कवि बिहारी भगवान कृष्ण से प्रेम करने वाले मन की दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं- मन की इस दशा को कोई नहीं समझ सकता है। प्रत्येक वस्तु काले रंग में डूबने से काली हो जाती है किन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न यह मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग (कृष्ण की भक्ति) में मग्न होता है, वैसे-वैसे श्वेत (पवित्र) होता जाता है।

प्रश्न 3.
बिहारी समय-समय पर बदलनेवाले मन की रुचि के बारे में क्या कहते हैं?
उत्तर:
बिहारी समय-समय पर बदलने वाले मन की रूचि के बारे में बताते हुए कहते हैं कि समय-समय पर सभी वस्तुएँ सुन्दर लगती है और मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जबकि इस संसार में न तो कोई रूपवान है और न ही कोई कुरूप है। जिसकी रुचि जिस तरफ ज्यादा होती है, उसके लिए वही चीज़ ज्यादा अच्छी हो जाती है।

III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :

प्रश्न 1.
कनक कनक तैं सौगुनौ, मादकता अधिकाइ।
उहि खाएं बौराइ, इहिं पाऐं ही बौंराइ।।
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि बिहारी जी ने यहाँ स्वर्ण, अर्थात् धन, धतूरे से सौगुना अधिक उन्मत्त करने वाला कहा है।

भाव स्पष्टीकरण : प्रस्तुत दोहे में बिहारी लाल ने स्वर्ण और धतूरे की मादकता का वर्णन किया है। स्वर्ण में धतूरे से सौ गुनी अधिक नशा होती है। क्योंकि धतूरे को खाने से आदमी बावला होता है और स्वर्ण को पाने मात्र से ही बावला होता है।

विशेष : यमक अलंकार।

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प्रश्न 2.
अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूप, सरू, बाइ।
सो ताकौ सागरू जहाँ, जाकी प्यास बुझाइ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि बिहारी इस दोहे के माध्यम से कहते है कि जिसका जिसमें अभीष्ट सध जाये, वही उसके निमित्त सब कुछ है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा ।

भाव स्पष्टीकरण : इस दुनिया में अति गहरे और अति उथले पानी के स्रोत हैं। जैसे – सागर, नदी, कूप, सरोवर और कुँआ। बिहारी लाल कहते हैं कि जहाँ जिसकी प्यास बुझ जाए वही उसके लिए सागर के समान है। भाव यह है कि संसार में छोटे-बड़े कई दानी हैं। जिसकी इच्छा जहाँ पूर्ण हो जाए, उस के लिए वही बड़ा दानी है।

प्रश्न 3.
जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के मध्य युगीन कविता ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है जिसके कवि बिहारीलाल हैं।

संदर्भ : बिहारी जी इस नीतिपरक दोहे के माध्यम से सांसारिक ज्ञान को सामने ला देते हैं और कहते हैं कि बाहरी दिखावा और पाखण्ड व्यर्थ है, क्योंकि भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखण्ड से नहीं।

भाव स्पष्टीकरण : प्रस्तुत दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि बाहरी दिखावा, पाखण्ड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखण्ड से नहीं। जप करना, माला पहनना, छापा और तिलक लगाना इन सब प्रकार के पाखण्डों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती है। बल्कि जब तक तेरा मन कच्चा है, तब तक तेरा यह सारा नाचा अर्थात् पाखण्ड व्यर्थ है, इसलिए व्यक्ति को विषय-वासनाएँ मिटाकर और बाहरी आडम्बरों को त्यागकर सच्चे मन से ईश्वर की उपासना करनी चाहिए क्योंकि राम अर्थात् भगवान तो सच्ची भावना से प्रसन्न होते हैं।

विशेष : भाषा – ब्रज और संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रयोग।
भाव – भक्ति और नीति परक।

प्रश्न 4.
बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत फिरि न घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : सम्पत्ति रूपी सलिल के बढ़ने से जो परिणाम होता है, उसका वर्णन इस दोहे में मिलता है।

भाव स्पष्टीकरण : बिहारी लाल कहते हैं कि सम्पत्ति रूपी पानी जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे मन रूपी सरोज फैलता जाता है। अर्थात् मन की इच्छाएँ एवं प्रलोभन में वृद्धि होती जाती है। लेकिन सम्पत्ति रूपी पानी जैसे-जैसे घटता है, मन रूपी कमल संकुचित नहीं होता बल्कि पूर्ण रूप से मुरझा जाता है। इसलिए मन की इच्छाओं को काबू में रखना चाहिए नहीं तो मानव जीवन में आनंद की क्षति हो जाती है।

विशेष : नीति परक दोहा। अलंकार : अनुप्रास।

प्रश्न 5.
समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होई॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : इस दोहे में बिहारी लाल ने यह बताने का प्रयास किया है कि कोई भी वस्तु सुन्दर या असुन्दर नहीं होती।

भाव स्पष्टीकरण : यह समय-समय की बात होती है कि कोई वस्तु हमें किसी समय सुंदर प्रतीत होती है तो वही वस्तु किसी और समय सुंदर नहीं प्रतीत होती। यह मन की रुचि और अरुचि पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह है कि अपने आप में कोई वस्तु सुंदर या कुरुप नहीं होती।

विशेष : नीति परक दोहा।

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प्रश्न 6.
अधर-धरत हरि कैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष-रंग होति॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

भाव स्पष्टीकरण : कृष्ण का सौंदर्य-वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि कृष्ण जब हरे रंग की बाँसुरी अपने लाल होठों पर रखते हैं तो उस मुरली पर कृष्ण के नीले शरीर के ऊपर के पीले रंग के वस्त्र (पितांबरी) की छवि पड़ती है तो यह सब मिलकर आसमान के नीले रंग में दिखाई देनेवाले इंद्रधनुष का आभास दे रही है।

अतिरिक्त प्रश्न :

प्रश्न 1.
कहै यहै श्रुति सुम्रत्यौ, यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसकहीं, पातक, राजा, रोग॥
उत्तर:
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘बिहारी के दोहे’ से लिया गया है, जिसके रचयिता बिहारी लाल जी हैं।

संदर्भ : कवि इस शाश्वत सत्य को उद्घाटित करते हैं कि इस दुनिया में निर्बल व्यक्ति को सभी दबाते हैं।

भाव स्पष्टीकरण : कवि बिहारी कहते हैं कि संसार में पाप-कर्म, राजा और रोग, यह तीनों हमेशा निर्बल को ही सताते हैं। कमजोर व्यक्ति कई बार परिस्थितिवश पाप कार्य में लीन हो जाते हैं। पाप को छिपाने की ताकत भी उनमें नहीं होती है परिणामस्वरूप वे उसके कारण दण्डित भी किये जाते हैं। राजा (शासक) का क्रोध भी निर्बल लोगों पर ही उतरता है। भूख और चिन्तावश निर्बल लोग रोगी हो जाते हैं। उनमें बीमारी से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं रह जाती है और वे बीमारी से ग्रसित होते जाते हैं।

विशेष : बिहारी ने ब्रजभाषा में यह दोहा रचा है। शैली वर्णनात्मक है। छन्द दोहा है।

बिहारी के दोहे कवि परिचय :

गागर में सागर भरने वाले रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि बिहारी लाल का जन्म ग्वालियर के पास ‘बसुआ’ गोविंदपुर नामक गाँव में हुआ। बिहारी अपने समय के असाधारण कवि थे। ‘बिहारी सतसई’ सबसे अधिक लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध रचना है। इस ग्रंथ पर अनेक भाषाओं में टीकाएँ लिखी गई हैं। आपके दोहों का मुख्य विषय श्रृंगार वर्णन है। आपने भक्ति और नीति विषयक दोहों की भी अत्यंत सफलता पूर्वक रचना की है।

‘बिहारी सतसई’ श्रृंगार का तो सागर है ही, साथ ही मानव-जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं की मार्मिक एवं निर्माणपरक झाँकी भी प्रस्तुत करती है। आपके नीति के दोहे सांसारिक ज्ञान को सामने ला देते हैं। सतसई में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की सामग्री उपस्थित है। विषय की यह व्यापकता रीतिकाल के अन्य कवियों में नहीं मिलती। बिहारी का भाषा भंडार अत्यंत विस्तृत है। भाव और परिस्थिति के अनुकूल ब्रज और संस्कृत भाषा के शब्दों का सुंदर प्रयोग किया है।

बिहारी के दोहे का आशय :

प्रस्तुत दोहों में कवि बिहारीलाल ने श्रीकृष्ण-गोपिका का प्रेम, मन की शुद्धता, दान की महत्ता और मन की दुर्बलता आदि का मनमोहक वर्णन किया है।

बिहारी के दोहे का भावार्थ :

1) कनक कनक तैं सौगुनौ, मादकता अधिकाइ।
उहिं खाएं बौराइ, इहिं पाएं ही बौंराइ ॥1॥

सोना (धन) धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक नशीला होता है; क्योंकि धतूरे को तो खाने पर उन्माद होता है, परन्तु सोने को तो पाकर ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। धन-दौलत का नशा पागल बना देनेवाला होता है।
अर्थात् धन बढ़ने पर मनुष्य में अहंकार आ जाता है। अहंकार के वश होकर उसे भले-बुरे का ज्ञान ही नहीं रहता। किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान न रहना ही मादकता है।

शब्दार्थ :
कनक – स्वर्ण, धतूरा;
मादकता – नशा;
बौराइ – बावला, पागल होना|

2) जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु ॥2॥

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बाहरी पाखंड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखंड से नहीं। इस आशय को कवि इस दोहे में व्यक्त करता है- जप करने की माला हाथ में लेकर जप करने से, सारे शरीर पर चंदन का छाप लगाने से अथवा माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम नहीं होगा। आशय यह कि थे सब बाहरी दिखावे हैं। इनमें प्रभु-प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल अधूरी भक्ति वाले अपरिपक्व लोग ही इन व्यर्थ के कर्मकांडों में लगे रहते हैं। जब तक मनुष्य के मन में छल, कपट, पाप और माया-मोह के विकार भरे हुए हैं, तब तक उसको संसार के भ्रम एवं माया-जाल में पड़कर नाचना पड़ता है। क्योंकि राम अर्थात् भगवान तो सच्ची भक्ति से प्रसन्न होते हैं।

शब्दार्थ :
जपमाला – जप करने की माला;
सरै – पूरा होना;
काँचै – कच्चा;
राँचै – प्रसन्न होना।

3) अधर-धरत हरि मैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष-रंग होति ॥3॥

एक सखी कृष्ण की शोभा का वर्णन कर रही है- जब कृष्ण बाँसुरी को होठों पर रखते हैं, तब उस पर होठों की, आँखों की और पीले वस्त्र की चमक पड़ती है। इसके कारण वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्र-धनुष की तरह रंग-बिरंगी हो उठती है। होठों का रंग लाल है, आँखों का रंग सफेद और काला है, वस्त्र का रंग पीला है। इन सबके प्रभाव से हरे रंगवाली बाँसुरी का रंग-बिरंगा हो जाना स्वाभाविक है।
श्रीकृष्ण के सामिप्य से सामान्य बाँसुरी का इन्द्र-धनुष सा रंग का हो जाना कह कर वह व्यंजित करती है कि यदि आप उनके समीप चलेंगी तो आपकी शोभा भी रंगीली हो जाएगी।

शब्दार्थ :
अधर – होंठ;
डीठि – दृष्टि;
पट – वस्त्र;
जोति – चमक।

4) अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूप, सरू, बाइ।
सो ताकौ सागरू जहाँ, जाकी प्यास बुझाइ ॥4॥

कवि कहता है- वैसे तो इस जगत में गहरे और सभी प्रकार के कुएँ, सरोवर, नदियाँ और बावडियाँ हैं। परन्तु जिसकी प्यास जहाँ बुझ जाए, उसके लिए तो वहीं सागर है। इसी प्रकार यदि बडे आदमी से उसका कोई काम न निकले और छोटे आदमी से काम निकल जाए तो उसके लिए वह छोटा व्यक्ति ही सागर के समान महान है।

शब्दार्थ :
अगाधु – गहरे;
औथरौ – उथले;
सरू – सरोवर;
बाइ – कुआँ।

5) या अनुरागी चित्तकी, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यों बू स्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्जलु होइ ॥5॥

यहाँ किसी भक्त का कथन है। वह कृष्ण के प्रेम में डूबे मन की दशा का वर्णन कर रहा हैं- इस अनुरागी मन की विलक्षण अवस्था को कोई नहीं समझ सकता। ज्यों-ज्यों यह श्याम के रंग में डूबता हैं, त्यों-त्यों उज्जवल होता है। यहाँ विलक्षणता यह है कि काले रंग में डूबने से वस्तु काली होनी चाहिए, परन्तु मन श्याम रंग में डूबकर श्वेत हो रहा है। यहाँ विरोध का आभास मात्र है, परन्तु यथार्थ में विरोध नहीं हैं। इस दोहे का अर्थ श्रृंगार रस में भी किया जा सकता है। श्रृंगार रस में नायिका का कथन सखी के प्रति माना जाएगा।

हे सखी! इस मेरे अनुरागी चित्त की गति कोई नहीं जानता। यह कृष्ण (नायक) के प्रेम में ज्यों-ज्यों लीन होता है, त्यों-त्यों व्याकुल न होकर अधिकाधिक प्रेम-मग्न होता है। कोई भी वस्तु जब काले रंग से डुबोई जाती है तो वह काली हो जाती है और उस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता। किन्तु चित्त की विलक्षणता यह है कि ज्यों-ज्यों वह श्याम के रंग में डूबता जाता है त्यों-त्यों उज्जवल होता है अर्थात् श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण के अनुराग से प्राणी मात्र का मन पवित्र हो जाता है।

शब्दार्थ :
अनुरागी – प्रेमी;
गति – चाल;
बूडै – डूबे;
स्याम रंग – साँवला रंग या कृष्ण का प्रेम।

6) बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत फिरि न घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ॥6॥

कवि कहता है- सम्पत्ति रूपी जल के बढ़ने के साथ-साथ मन रूपी कमल की बेल बढ़ जाती है। परन्तु जब सम्पत्ति रूपी जल घटना आरंभ होता है, तब वह कमल की नाल छोटी नहीं होती, चाहे जड़ से ही सूख क्यों न जाये! वर्षा ऋतु में जब तालाब में पानी बढ़ता है, तब कमल की नाल लंबी होती जाती है और पानी के ऊपर-ही-ऊपर तैरती रहती है, जिससे फूल पानी के ऊपर रहता है। परन्तु जब तालाब का पानी घटता है, तब नाल छोटी नहीं होती।
इसी प्रकार जब सम्पत्ति बढ़ती है तब मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, परन्तु जब सम्पत्ति कम हो जाती है तब इच्छाएँ कम नहीं होती, चाहे मनुष्य बिल्कुल नष्ट ही क्यों न हो जाय।

शब्दार्थ :
सलिलु – पानी;
सरोजु – कमल;
बरु – बल्कि;
समूल – जड़ सहित;
कुम्हिलाइ – मुरझा जाना।

7) समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होइ ॥7॥

यह समस्त सृष्टि उस प्रभु की रचना है। इसमें न कुछ सुन्दर है और न असुन्दर। अपनेअपने अवसर पर सब ओर समस्त वस्तुएँ सुन्दर लगती हैं। मनुष्य के मन की चाह जिस समय और जितनी होती है, उस समय उस वस्तु में उसको उतनी ही शोभा दिखाई पड़ती है।
बिहारी ने यहाँ सौन्दर्य का बड़ा ही व्यापक रूप प्रस्तुत किया है। उनके लिए समस्त सृष्टि ही सौन्दर्यमयी है। केवल मन की रुचि चाहिए। मन की रुचि के अनुसार ही प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य दिखाई पड़ेगा।

शब्दार्थ :
समै – समय;
रुचि – पसंद;
जेती – जितनी।

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8) कहै यहै श्रुति सुम्रत्यौ, यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसकहीं, पातक, राजा, रोग ॥8॥

कवि कहता है – सब वेद और स्मृतियाँ तथा ज्ञानी लोग यही एक बात बताते हैं कि राजा, रोग और पाप – ये तीनों दुर्बल को ही दबाते हैं। भाव यह है कि दुर्बलता सबसे बड़ा पाप है। यदि कोई बलवान व्यक्ति पाप भी करता है, तो पाप नहीं माना जाता। इसी प्रकार राजा और रोग भी दुर्बल को ही दबाते हैं, सशक्त को कोई नहीं दबा सकता।

शब्दार्थ :
श्रुति – वेद;
सुम्रत्यौ – स्मृति भी;
सयाने लोग – ज्ञानी लोग;
निसकहीं – दुर्बल, अशक्त;
पातक – पाप।

बिहारी के दोहे Summary in Kannada

बिहारी के दोहे Summary in Kannada 1

बिहारी के दोहे Summary in Kannada 2

बिहारी के दोहे Summary in English

The following are a collection of verses by the poet Biharilal.
1. In the first verse, the poet Bihari says that gold is a hundred times more intoxicating than thorn apple or datura. This is because only when one eats thorn apple or datura does one get intoxicated; however, just upon acquiring gold, a person becomes intoxicated. The intoxication of wealth drives people crazy.

2. The outward presence is useless. According to Biharilal, God is pleased by devotion and sincerity, and not by outward pretences. In this verse, the poet expresses his thoughts about this – chanting, telling the beads, vermilion and other outward pretences will not do us any service – it will not bring us any closer to God. As long as the mind is crude and immature, all the outward pretences are useless. This is because God is pleased only by the true devotion of the mind.

3. One of the female devotees is describing Lord Krishna – when the Lord puts the flute to his lips, it takes on the colour of the lips, the colour of the eyes, and the colour of the yellow cloth that the Lord is wearing. Due to this, the green coloured flute takes on the multi-coloured nature of the rainbow (the bow of Indra). The lips are red, the eyes are black and white while the cloth is pink in colour. Under the influence of these colours, it is quite natural for the green coloured flute to appear multi-coloured.

4. The poet says that in this world there are many forms and sizes of water bodies like wells, streams, rivers, and lakes. However, that which quenches one’s thirst is as good as an ocean for that person. The intended meaning is that, in the world, there are many donors both big and small. However, the donor who satisfies a person’s needs is the greatest donor and is like an ocean for that person.

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5. This verse can be understood in two ways – pertaining to beauty or pertaining to devotion. One meaning is that the companion of Lord Krishna is saying to the Lord – Oh Lord, my love for you is so wonderful that nobody can understand it. The more it drowns in this darkness (Lord Krishna was dark-complexioned), the brighter it becomes. The other meaning is that a devotee is singing praises of the Lord – Oh Lord, my enamoured mind cannot be understood by anyone. The more it drowns in devotion to the Lord, the purer it becomes.

6. The poet says that when there is an increase in the level of water, which is like treasure to plants, the lotus (which is like the human mind) root begins to grow longer. However, when water levels begin to recede, the root of the lotus does not diminish. It stays as long as it has grown, even if it dries up completely. When the water level increases, the longer root enables the lotus flower to float on top of the surface of the water. However, when the water level reduces, the length of the root remains the same.

7. The poet says that at appropriate times, all the things in the world appear beautiful. In reality, no object is either beautiful or ugly. Depending on how much we desire an object at a given point in time, it appears that much more beautiful at that time.

8. The poet says that all scholarly men, sages, and great thinkers say that kings, disease, and sin – only these three trouble the weak. What is implied is that weakness is the greatest evil. If a strong person commits a sin, it is not even considered a sin. In this manner, even kings and disease only strike and prey upon the weak. The strong are never pushed down by anyone.