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Karnataka 2nd PUC Hindi Workbook Answers रचना निबंध-लेखन
निम्नलिखित विषयों पर निबंध लिखिए :
1) विद्यार्थी जीवन
विद्वानों ने विद्यार्थी शब्द को दो भागों में बाँटा है – ‘विद्या’ और ‘अर्थी’। जो विद्या का अर्जन करता है वह विद्यार्थी है। जो विद्या पाने के लिए लालायित या उत्सुक है वह विद्यार्थी कहलाता है। विद्यार्थी अवस्था भावी जीवन की आधार – शिला है।
विद्यार्थी जीवन वास्तव में मानव – जीवन का बसन्त काल है। इस बसन्त काल में विद्यार्थी को सावधान रहना चाहिए। सदैव अपनी संगति से सचेष्ट रहना चाहिए क्योंकि संगति का विद्यार्थी पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। शास्त्रों में ऐसा कहा गया है – आदमी अपनी संगत से पहचाना जाता है। लोग किसी के गुण तथा अवगुणों का पता उसकी संगति से ही लगाते हैं। यदि विद्यार्थी के मित्र अच्छे हैं तो अवश्य ही उसके चरित्र में चार चाँद लग जायेंगे।
विद्यार्थी जीवन संयमित तथा नियमित होना चाहिए। जीवन के नियमों का उचित रीति से पालन करनेवाले विद्यार्थी जीवन में कभी असफल नहीं होते। विद्यार्थी को अपनी इंद्रियों और अपने मन पर संयम रखना चाहिए। समय पर सोना, समय पर उठना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, नियमित रूप से विद्याध्यन करना, संतुलित भोजन करना, सदैव अपने से बड़ों की संगति में बैठना, दूषित और कलुषित विचारों से दूर रहना ये विद्यार्थी के लक्षण हैं। जिस मनुष्य ने विद्यार्थी जीवन को जितना ही पवित्र सादगी सचारित्रता से व्यतीत किया है वह जीवन में उतना ही ऊँचा उठता है।
समय का सदुपयोग विद्यार्थी जीवन का प्रमुख अंग है। समय को बरबाद न करके विद्यार्थी को स्वाध्यायी होना चाहिए। केवल पढ़ना ही विद्यार्थी के लिए मुख्य नहीं है। पढ़ते – पढ़ते थक जाने पर मस्तिष्क को आराम देने के लिए थोड़ा – सा खेलना भी आवश्यक है। इससे शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है और विद्यार्थी का मनोरंजन भी हो जाता है।
अनुशासन विद्यार्थी – जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण है। लेकिन दुःख का विषय यह है कि आजकल के विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, निरंकुशता आदि दुर्गुण देखे जाते हैं। वे गुरुजनों का अपमान करते हैं, नियमों की अवहेलना करते हैं, परीक्षा में नकल करते हैं, हड़ताल करना तो उनका जन्म – सिद्ध अधिकार हो गया है। इन बुरी प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए। आदर्श विद्यार्थियों
को अनुशासन और आज्ञापालन की आवश्यकता है।
विद्यार्थियों को समाज – सेवा का व्रत लेना चाहिए। व्यर्थ की बातों में अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करना चाहिए। समय का नाश जीवन का नाश है। अश्लील बातों से बहुत दूर रहना चाहिए। लड़ने – झगड़ने से बचना चाहिए। मिथ्या – आडंबरों से दूर रहना चाहिए। बुरी आदतों से कोसों दूर रहना चाहिए। सादा – जीवन और उच्च विचार यही विद्यार्थी जीवन का सार है।
विद्यार्थी ही राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति है। विद्यार्थी जीवन उस सुंदर साधनावस्था का समय हैं जिस में बालक अपने जीवनोपयोगी अनंत गुणों का संचय करता है, ज्ञान वर्धन करता है और अपने मन एवं मस्तिष्क का परिष्कार करता है। अतः मानव जीवन में विद्यार्थी जीवन का विशेष महत्व है।
2) पुस्तकालय
हमारे शास्त्रों में कहा गया है – “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते” अर्थात् ज्ञान के समान पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं। अंग्रेजी में ज्ञान को ही सच्चा बल बताया गया है। ऐसे ज्ञान प्राप्ति के साधनों में पुस्तकालय एक है। यह ज्ञानप्रसार का सर्वश्रेष्ठ साधन है।
पुस्तकालय का स्थूल अर्थ है – “पुस्तकों का घर’ या वह स्थान जहाँ पुस्तकों का संग्रह होता है। आजकल अनेक प्रकार के पुस्तकालय देखे जाते हैं। जिनको पढ़ने – लिखने का शौक होता है वे अपने घरों में निजी पुस्तकालय रखते हैं। स्कूल और कालेजों में विद्यार्थियों के उपयोग के लिए पुस्तकालय बनाये जाते हैं। कुछ पुस्तकालय गाँवो में या शहरों में आम जनता के उपयोग के लिए खोले जाते हैं। आजकल चलते – फिरते पुस्तकालय भी देखने में आते हैं।
पुस्तकालय से अनेक लाभ हैं। पुस्तकालय ज्ञान का भंडार है। अच्छे पुस्तकालय से सभी प्रकार का, सभी विषयों का ज्ञान मिलता है। किसी भी विषय का ज्ञान पुस्तकालयों से प्राप्त कर सकते हैं। पुस्तकालय संसार के महान व्यक्तियों का, महात्माओं, विचारकों, कवियों, लेखकों का परिचय कराता है। महात्माओं, महापुरुषों के सत्संग से, अनेक विचारों से हमारे ज्ञान की वृद्धि होती है।
पुस्तकालयों से समय का सदुपयोग होता है। अवकाश के समय को पुस्तकों के साथ बिताकर हम मन की चिंताओं को भूल सकते हैं। पुस्तकालय हमारे चरित्र निर्माण में भी सहायक होते हैं।
पुस्तकालय राष्ट्र की निधि है। जिस देश में विद्या का जितना अधिक प्रसार होगा उस देश में पुस्तकालयों की संख्या अधिक होती है। पुस्तकालय देश की प्रगति में और सुधार में सहायक होता है। इसलिए सरकार पुस्तकालयों के निर्माण और उनकी उन्नति के लिए आर्थिक सहायता देती है।
3) विज्ञान की देन
बोलचाल की भाषा में किसी वस्तु के विशेष ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। यह मानव के लिए हितकारी है। अब तो सामान्य मानव ही नहीं, अंधे, लंगड़े, बहरे आदि भी विज्ञान द्वारा उपकृत हैं। विज्ञान के द्वारा आँखों का प्रत्यारोपण करके अंधे लोग दृष्टि पा सकते हैं, कृत्रिम पांव के सहारे लंगड़े गतिमान हो सकते हैं और बहरे कान में यंत्र लगाकर सुनने में समर्थ हो सकते हैं।
जब शिशु गर्भ में रहता है, तो उसकी प्राण रक्षा हेतु उसकी माँ के द्वारा उसे दवाइयाँ दी जाती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आज का मानव पृथ्वी देखने से पहले विज्ञान देख लेता है। अतः विज्ञान मनुष्य के लिए वरदान है। इसने मानव जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। चिकित्सा, यातायात, आवास, मनोरंजन, कृषि आदि क्षेत्रों में भी विज्ञान अपने चमत्कार दिखाता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान का करिश्मा बेजोड़ है। पहले हैजा और प्लेग जैसी महामारी से गाँव के गाँव साफ हो जाते थे, लेकिन अब इन बीमारियों का नामो – निशान नहीं है। अब तो मरने से पूर्व आप अपने अंगों का दान भी कर सकते हैं। दान की हुई आंखों द्वारा किसी भी अंधे को नेत्रवान बनाया जा सकता है। प्लास्टिक सर्जरी तो अत्यधिक चमत्कृत करती है। मानव के किसी भी खराब अंग को काटकर उसके स्थान पर दूसरे का अंग प्रत्यारोपित किया जा सकता है।
यातायात के क्षेत्र में वैज्ञानिक उपलब्धियां सराहनीय हैं। पहले हमारी यात्राएँ कष्टप्रद होती थीं लेकिन आज इसे आरामदेह एवं सुगम बना दिया गया है। अगर किसी के पास कम पैसे हों, तो रिक्शा, बस अथवा रेल में यात्रा की जा सकती है। अधिक पैसे होने पर पक्षी की तरह आकाश में वायुयान द्वारा उड़ा जा सकता है।
मनोरंजन के क्षेत्र में भी एक से बढ़कर एक विज्ञान की अनुपम देन हैं। रेडियो से संगीत का आनंद लिया जा सकता है। टेपरिकॉर्डर, वीडियो एवं कैमरे की सहायता से अतीत को कैद किया जा सकता है। दूरदर्शन का तो कहना ही क्या है? संचार के क्षेत्र में भी विज्ञान पीछे नहीं है। घर बैठे अपने किसी सुदूर मित्र से टेलीफोन या मोबाइल या इंटरनेट द्वारा बातें हो सकती हैं।
कृषि एवं पशुपालन के क्षेत्र में भी विज्ञान ने क्रांति पैदा कर दी है। खाद्यान्नों की नई किस्मों का आविष्कार किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। कंप्यूटर एवं रोबोट विज्ञान के नवीनतम चमत्कार हैं। इस प्रकार विज्ञान मानव के लिए एक वरदान है, जो उसका जन्म के पूर्व से मृत्यु के बाद तक साथ देता है, क्योंकि बड़े – बड़े शहरों में मानव की लाशें लकड़ी की चिता के बजाय विद्युत शवदाह गृह में जलाई जाने लगी हैं।
4) प्रदूषण की समस्या
‘पर्यावरण’ का शाब्दिक अर्थ है – हमारे चारों ओर का प्राकृतिक आवरण। जो कुछ भी हमारे चारों ओर विद्यमान है, हमें ढके – लपेटे हुए है उसे पर्यावरण कह सकते हैं। प्रकृति ने मानव के लिए एक सुखद आवरण बनाया था। साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा, पीने के लिए साफ़ पानी, कोलाहल रहित शांत प्रकृति, हरे – भरे वन, उनमें बसने वाले पशु पक्षी। इन सबके रूप में प्रकृति ने मानव को कितना कुछ दिया, किंतु मानव ने अपने स्वार्थ में एक ओर तो प्रकृति की सुविधाओं का अंधाधुंध लाभ उठाकर उसका शोषण किया और दूसरी ओर प्रगति के नाम पर शोरगुल, धुआँ, जहरीली गैसें वायुमंडल में भर दिया, यही नहीं समुद्र आदि के जल को भी विषाक्त कर दिया।
वायु हमारे प्राणों का आधार है। किंतु आजकल, विशेषकर शहरों में हम जिस वायु में साँस ले रहे हैं वह प्राणों के लिए हानिकारक है। उसमें धूल, धुआँ, राख जैसे पदार्थ हैं जिनमें कार्बन मोनो – ऑक्साइड जैसे हानिकारक रसायन होते हैं। यही वायु प्रदूषण है। इसी प्रदूषण के कारण आँख, गले, फेफड़े के रोगों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है।
बढ़ता हुआ शोर भी प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। इसे ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है। वाहनों, कारखानों का शोर कान फाड़ने वाला होता है। घरों में ऊँचे स्वर से रेडियो – टी.वी. सुनना, लाउडस्पीकरों का मनमाना प्रयोग, जोरों से चीखना – चिल्लाना सब शोर के ही उदाहरण हैं। ध्वनि प्रदषण से न केवल सनने की शक्ति पर कप्रभाव पडता है. इससे सिर दर्द, रक्तचाप, अनिद्रा जैसे रोग भी हो जाते हैं।
जल का दूसरा नाम जीवन है। प्राणी जल के बिना जीवित नहीं रह सकता। आज स्वच्छ जल मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि जल – स्रोतों को ही प्रदूषित कर दिया गया है। नगरों और शहरों की गंदगी तथा कारखानों के जहरीले रसायन नदियों और तालाबों में छोड़े जाते हैं।
अज्ञान और सुविधाओं के अभाव के कारण मलमूत्र त्याग, पशुओं को नहलाने, वस्त्र धोने, कूड़ा – कचरा पानी में गिराने से भी जल प्रदूषित हो जाता है। ऐसा प्रदूषित जल पीने से हैजा, अतिसार, पीलिया, टाइफाइड जैसे रोग फैलते हैं।
वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण के बढ़ने के साथ – साथ मृदा प्रदूषण का खतरा भी उत्पन्न हो गया है। रासायनिक खादों के अतिशय प्रयोग से मिट्टी का स्वाभाविक रूप विकृत होता जा रहा है। परिणामस्वरूप, उत्पादित वस्तुओं का पौष्टिक तत्व नष्ट होता जा रहा है। साग – सब्जी और फल स्वादहीन होते जा रहे हैं।
दुख की बात है कि सभ्यता और विकास के नाम पर हम प्रकृति की धरोहर को नष्ट कर रहे हैं और अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रहे हैं। यदि पर्यावरण का संरक्षण नहीं किया गया तो मानवजाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। वायु प्रदूषण रोकने के लिए अधिक वृक्ष लगाने होंगे और कल – कारखानों को वायुमंडल में विषैले तत्व छोड़ने से रोकना होगा। वाहनों की भी जाँच करनी होगी और ऐसे ईंधनों का प्रयोग करना होगा जो प्रदूषण न फैलाएँ। कारखानों को नदी – तालाबों में हानिकारक रसायन छोड़ने से रोकना होगा। जल स्रोतों की सफाई करते रहनी होगी। ध्वनि प्रदूषण रोकने के भी उपाय करने होंगे। वाहनों की बनावट ऐसी हो कि वे शोर न करें। व्यर्थ हॉर्न बजाने से लोगों को रोकना होगा। भूमि प्रदूषण को रोकने के लिए प्राकृतिक उर्वरकों के प्रयोग पर बल देना होगा। सभी प्रकार के प्रदूषण पर नियंत्रण करने के लिए आवश्यक है कि लोगों के सोचने के ढंग में बदलाव लाया जाए।
जैसे हमारी एक निश्चित आयु है, उसी प्रकार प्राकृतिक संसाधनों को भो। यदि हम उनको बिगाड़ेंगे या उनसे छेड़छाड़ करेंगे तो हमारा अपना अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। इसलिए भलाई इसी में है कि हम पर्यावरण का संरक्षण करें, ताकि हमारा अस्तित्व बना रहे।
5) मेरे जीवन का लक्ष्य
प्रत्येक मानव का कोई – न – कोई लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य बनाने से जीवन में रस आ जाता है। मैंने यह तय किया है कि मैं पत्रकार बनूँगा। आजकल सबसे प्रभावशाली स्थान है – प्रचार माध्यमों का। समाचार – पत्र, रेडियों, दूरदर्शन आदि चाहें तो देश में आमूलचूल बदलाव ला सकते हैं। मैं भी ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर पहुंचना चाहता हूँ जहाँ से मैं देशहित के लिए बहुत कुछ कर सकूँ। पत्रकार बनकर मैं देश को तोड़ने वाली ताकतों के विरुद्ध संघर्ष करूँगा और भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करूँगा।
मेरे पड़ोस में एक पत्रकार रहते हैं – श्री नागराज। वे टाइम्स आफ इंडिया के संवाददाता तथा भ्रष्टाचार – विरोधी विभाग के प्रमुख पत्रकार हैं। उन्होंने पिछले वर्ष गैस एजेंसी की धाँधली को अपने लेखों द्वारा बंद कराया था। उन्हीं के लेखों के कारण हमारे शहर में कई दीन – दुखी लोगों को न्याय मिला है। इन कारणों से मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। मेरा भी दिल करता है कि मैं उनकी तरह श्रेष्ठ पत्रकार बनूँ और नित्य बढ़ती समस्याओं का मुकाबला करूँ।
मुझे पता है कि पत्रकार बनने में खतरे हैं तथा पैसा भी बहुत नहीं है। परंतु मैं पैसे के लिए या धंधे के लिए पत्रकार नहीं बनूँगा। मेरे जीवन का लक्ष्य होगा – समाज की कुरीतियों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना। यदि मैं थोड़ी – सी बुराइयों को भी हटा सका तो मुझे बहुत संतोष मिलेगा। मैं स्वस्थ समाज को देखना चाहता है। इसके लिए पत्रकार बनकर हर दुख – दर्द को मिटा ेना मैं अपना धर्म समझता हूँ।
केवल सोचने से लक्ष्य नहीं मिलता। मैंने इसे पाने के लिए कुछ तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं। मैं दैनिक समाचार – पत्र पढ़ता हूँ, रेडियों – दूरदर्शन के समाचार तथा अन्य सामयिक विषयों को ध्यान से सुनता हूँ। मैंने हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा का गहरा अध्ययन करने की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं ताकि लेख लिख सकूँ। वह दिन दूर नहीं, जब मैं पत्रकार बनकर समाज की सेवा करने का सौभाग्य पा सकूँगा।
6) हमारा प्यारा भारतवर्ष
संसार के नक्शे पर बहुत सारे देश विद्यमान हैं। सभी देशों की अपनी – अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा, प्रकृति और रंग – रूप आदि हैं। उन सबका अपना – अपना महत्त्व भी निश्चय ही है। वहाँ के रहने वाले नागरिकों के मन में अपने – अपने देश के प्रति भक्ति, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास सब – कुछ है; लेकिन उन देशों का कई दृष्टियों से वह महत्त्व नहीं, जो मेरे प्यारे देश भारतवर्ष का है। संसार के प्रायः अन्य सभी देशों में एकरूपता है। परन्तु जहाँ तक मेरे देश भारतवर्ष का प्रश्न है, अनेकता और अनेकरूपता को इसकी इतनी महत्त्वपूर्ण विशेषता माना गया है कि उस पर शेष देशों की अलग – अलग सारी विशेषताएँ, सारे रूप न्योछावर किये जा सकते हैं।
प्रकृति की गोद में बसे भारत के उत्तर में हिमालय की विशाल और दूर – दूर तक फैली हुई पर्वतमाला है। कश्मीर, मसूरी, शिमला आदि दर्शनीय पहाड़ी स्थल इसी पर्वतमाला की देन है। बाकी तीन दिशाओं में तीन सागर हैं, कि जो कन्याकुमारी में आकर घुल – मिलकर एक हो गए हैं। यहाँ बहने वाली पवित्र नदियों की तो गिनती कर पाना भी संभव नहीं है। इसी प्रकार कहीं पहाड़ी धरती है, तो कहीं कोसों तक रेगिस्तान फैले हुए हैं। इसी प्रकार कहीं दूर – दूर तक खेतों की हरियाली से भरे मैदान हैं, तो कहीं मीलों तक फैले घने जंगल। प्रकृति का इस प्रकार का अनेक रूपों वाला विस्तार संसार के अन्य किसी भी देश में नहीं है। संसार के अन्य देशों में सर्दी – गर्मी आदि में से कोई एक ऋतु ही मुख्य रूप से हमेशा बनी रहती है। ऋतुओं की कुल संख्या भी चार ही मानी गई है, जबकि भारत में बारी – बारी से छः ऋतुएँ आकर अपना ऐश्वर्य दिखाकर और अपना प्रभाव दिखा जाती हैं। वसन्त ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु, शरद् ऋतु, शीत ऋतु और शिशिर ऋतु – प्रकृति के इतने रंग – रूप मेरे प्यारे भारत के सिवा और कहीं भी नहीं मिलते! – यों तो मेरे प्यारे देश की भारतीयता नामक एक ही संस्कृति मानी गई है; पर इसकी रचना अन्य कई संस्कृतियों के प्रभावों से हुई है।
उन प्रभावों को ग्रहण करके भी अपनापन कभी नहीं गँवाया। भारतीय संस्कृति से ही महानदी से निकलने वाली नहरों के समान बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि कई उप – संस्कृतियों ने जन्म लिया। इस्लाम और ईसाई संस्कृतियाँ यद्यपि बाहर से आईं, पर अब इनको मानने वाले अपने – आपको भारतीय संस्कृति का अंग मानकर ही इस देश में यहाँ के मूल निवासियों के समान ही सभी प्रकार के अधिकार पाकर अपने – अपने कर्तव्यों का पालन भी कर रहे हैं। इस प्रकार भारत को अनेक धर्मों को जन्म और आश्रय देने वाली भूमि भी माना गया है। वेदों में प्रतिपादित आर्य (हिन्दू) धर्म यहाँ का मूल एवं मुख्य धर्म है। इसकी अनेक शाखाएँ प्रशाखाएँ यहाँ पर अपने – अपने विश्वासों के अनुसार क्रियाशील हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म, पारसी एवं अन्य प्रकार के कई धर्म भी स्वतन्त्र रूप से अपने विश्वासों का पालन करते हुए यहाँ निवास करते रहते हैं। कई प्रकार के धार्मिक – आध्यात्मिक सम्प्रदाय भी इस भारत भूमि पर सद्भाव के साथ, स्वतन्त्रतापूर्वक निवास कर रहे हैं।
संसार के अन्य देशों में अपनी मुख्य भाषा भी एक ही स्वीकार की गई है, यों बोलियाँ वहाँ भी कई हैं; पर भारत ने अपने संविधान में बाईस भाषाओं को राष्ट्रभाषा या राष्ट्रीय भाषाओं का ‘नाम और महत्त्व प्रदान कर रखा है। हर भाषा की कई बोलियाँ – उपबोलियाँ आदि भी हैं।
भारतभूमि की महानता तीर्थस्थानों, मन्दिरों, ऐतिहासिक किलों तथा अन्य प्रकार के भवनों के कारण भी है। भारत का अतीत अनेक प्रकार के त्याग और बलिदान के इतिहासों से भरा हुआ है। भारत की नीतियाँ भी हमेशा से सबका भला चाहने वाली रही हैं। सबके सुखों और निरोगता की कामना करने वाले वेदों जैसे महान ग्रन्थ, रामायण – महाभारत जैसे महान काव्य इसी देश में रचे गये। चारों कोनों पर स्थापित चार धाम और ज्योतिपिण्ड इसकी सभ्यता – संस्कृति की एकता और महानता को, आत्मिक उच्चता के भावों को प्रकट करने वाले हैं। सत्य, अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, का उपदेश एवं सन्देश देने वाले अपने प्यारे भारतवर्ष की महानता के सामने मेरा मस्तक अपने – आप ही झुक जाता है।
7) समाचार पत्रों का महत्त्व
समाचार पत्र नियत तिथि पर छपनेवाली पुस्तिका को कहते हैं, जिसमें देश – विदेश के समाचार छपे रहते हैं। आजकल समाचार पत्रों में केवल समाचार ही नहीं बल्कि उनमें सुधार की बातें भी रहती हैं। विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे रहते हैं। समाचार पत्र साप्ताहिक, दैनिक, पाक्षिक और मासिक कई प्रकार के होते हैं। देश विदेश के समाचार अधिकतर दैनिक पत्रों में मिलते हैं।
समाचार पत्रों से बहुत लाभ हुए हैं। हम घर बैठे ही देश – विदेश के समाचार प्रतिदिन पा सकते हैं। प्रतिदिन संसार में होनेवाली घटनाओं का विवरण हमें समाचार पत्रों द्वारा प्राप्त होता है। इनमें सुधार की अनेक बातें लिखी होती हैं जिनको पढ़कर मनुष्य – जाति उन्नति की ओर बढ़ती है। इनमें विज्ञापन आदि छपवाकर अपनी वस्तुओं का प्रचार भी किया जा सकता है। देश – विदेश का बाजार भाव, जलवायु वहाँ के निवासियों का व्यक्तिगत जीवन आदि की बातें समाचार पत्रों द्वारा ही प्राप्त होती हैं। जब हमारे पास कोई साथी नहीं होता उस समय समाचार पत्र पढ़ने से हमें अकेलेपन का अनुभव नहीं होता, ऐसा मालुम होता है मानो मित्र से ही बातें कर रहे हैं।
आज समाचार पत्र जनता के प्रतिनिधि हैं। जनता की आवाज को सरकार तक और सरकार का आदेश जनता तक पहुँचाने का काम समाचार पत्र ही करते हैं। कानून का विरोध करना, मत तैयार करना, लोगों को संगठित करना आदि काम आजकल समाचार पत्र द्वारा ही होते हैं। समाचार पत्र ही अनुचित कार्यों को रोकता है और लोगों की राय से उचित मार्ग बताता है।
समाचार पत्र मनोरंजन के साधन हैं। विज्ञान के आविष्कार समाचार पत्रों में छपते हैं। समाचार पत्र पढ़ने से सहकारिता की भावना बढ़ती है। देश – देश के बीच मैत्री की भावना का विकास होता है।
समाचार पत्रों को निष्पक्ष होकर न्याय – अन्याय, उचित – अनुचित, भले – बुरे का निर्णय करना चाहिए। आपसी भेद – भाव दूर करने में सरकार और जनता का माध्यम बनना चाहिए। शिक्षा के साथ – साथ हमारे देश में समाचार पत्रों की तेजी से वृद्धि हो रही है। लेकिन पढ़नेवाले अन्य देशों की अपेक्षा हमारे यहाँ बहुत कम हैं। साक्षरता बढ़ाने से यह कमी दूर हो जाएगी।
शिक्षा और कम्प्यूटर
आधुनिक जीवन में कम्प्यूटर का विशेष महत्व है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर का इस्तेमाल होता है। आज के आधुनिक जीवन में मनुष्य जन – जन के संपर्क में कम्प्यूटर की वजह से है। अगर आज कोई व्यक्ति कम्प्यूटर चलाना जानता है तो वह अपने बिजनेस, रोजगार को काफी हद तक फैला सकता है।
आज किसी भी कार्यालय में छोटे से क्लर्क के पद के लिए भी कम्प्यूटर की जानकारी होना बहुत जरूरी है। शिक्षा के क्षेत्र में कम्प्यूटर का बड़ा योगदान है। यह शिक्षा का अच्छा स्त्रोत है। आज हर स्कूल व कॉलेज में कम्प्यूटर लैब है। कम्प्यूटर के माध्यम से अध्यापकों को भी छात्रों को पढ़ाने में सहायता मिलती है। हर संस्थान में डिजिटल लाइब्रेरी ने पुस्तकों का स्थान ले लिया है। आज तो छोटी क्लास के बच्चों को भी कम्प्यूटर के बारे में बताया और पढाया जा रहा है। इंटरनेट सूचनाओं का सागर है जिससे छात्रों के ज्ञान में अद्भुत वृद्धि हो रही है। विद्यार्थी पाठयक्रम के अलावा अन्य विशेष जानकारी हासिल करने में भी सक्षम हो रहे हैं।
यही नहीं कम्प्यूटर भंडारण और डेटा प्रबंधन के लिए सबसे बढ़िया साधन है। कम्प्यूटर में आप अनेकों पुस्तकों को डिजिटल प्रारूप में अपने साथ रख सकते हैं और कभी भी पढ़ सकते हैं। विद्यार्थी अपने नोट्स तैयार करने में कम्प्यूटर की सहायता ले सकते हैं। शिक्षक भी विद्यार्थी को प्रभावी ढंग से किसी भी विषय को समझाने के लिए पावर पाइंट प्रजेंटेशन बनाकर उन्हें समझा सकते हैं। छात्रों को चार्ट, चित्र और आंकड़े दिखाये जा सकते हैं।
इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में आज कम्प्यूटर का उपयोग अनिवार्य बन गया है। सभी शिक्षण संस्थानों में इसकी शिक्षा धीरे – धीरे अनिवार्य बनती जा रही है। इसके द्वारा विश्व भर का ज्ञान पल भर में पी.सी. की स्क्रीन पर झलकता दिखाई दे जाता है। इसकी शिक्षा के बाद भारी भरकम पुस्तकों को रखने, संभालने और उन्हें उलटनें – पलटने की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। पुस्तकों से भरी बड़ी – बड़ी लाइब्रेरियों की जगह सी.डी. ले रही है जिनमें हजारों पृष्ठ की सामग्री एक छोटी सी डिबिया में सुरक्षित रह सकती है। इंटरनेट ने सारे विश्व को एक पाठशाला में बदल देने की अपनी क्षमता दिखा दी है।
9) दहेज प्रथा
दहेज और दायज शब्द समानार्थी हैं जिनका अर्थ विवाह के अवसर पर कन्या के संरक्षकों द्वारा वर पक्ष को दिये जानेवाली धनादि से लगाया जाता है। दहेज या दायज शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। परंतु संस्कृत में दायज शब्द देखने को अवश्य मिलता है। उपहार या दान विवाह में शिष्टाचार के रूप में वर को सामान्य उपहार आदि देना दहेज है। साधारणतया दहेज वह संपत्ति है जो एक व्यक्ति विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष से प्राप्त करता है। सरल शब्दों में हम यह कह सकते है कि कन्या पक्षवाले वर पक्षवालों को जो संपत्ति आदि विवाह के अवसर पर देते हैं उसे ही दहेज का नाम दिया जाता है।
प्राचीन भारतीय ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि अति प्राचीनकाल में भारत में दहेज प्रथा का प्रचलन था। परंतु वह दहेज प्रथा आधुनिक युग की दहेज प्रथा से भिन्न थी। प्राचीन भारतीय समाज में दहेज प्रथा के पीछे लालच एवं सौदेबाजी की भावना नहीं थी।
आजकल दहेज की कुप्रथा भारतीय समाज के ऊपर एक लांछन है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता का एक कलंक है, एक कोढ़ है। यों तो संसार के प्रत्येक देश और प्रत्येक समाज में विवाह के अवसर पर वर को वधू को या दोनों को कुछ भेंट देने की प्रथा है परंतु उसमें और दहेज प्रथा में जमीन – आसमान का अंतर हैं।
ज्ञान विज्ञान में उन्नति करके विश्व के अन्य लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए है और हम हैं कि उसी घिसी – पिटी रूढ़ि – रीति के पालन में मर रहे हैं। आजकल के नवयुवक दहेज पाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। यह प्रथा केवल ग्रामीणों में ही नहीं हैं बल्कि पढ़े – लिखे सुसभ्य, सुसंस्कृत लोगों में भी है। लड़के का पद, विद्या, सामाजिक स्थिति पर दहेज मांगा जाता है। लेकिन दहेज जुटाने में वधू के माँ – बाप कंगाल हो जाते हैं। जन्म – मरण के लिए कर्जदार बन जाते हैं।
सरकार ने इस प्रथा को दूर करने के लिए कानून बनाया है। आजकल के नौजवानों को बिना दहेज के विवाह करने की शपथ लेनी चाहिए। तभी नर और नारी की समानता की स्थापना हो सकेगी। जब तक हमारे समाज के मस्तक पर दहेज का लांछन है तब तक हम सिर उठाकर नहीं चल सकते।
10) जीवन में अहिंसा का महत्व
सामान्य अर्थ में ‘हिंसा नहीं करना’ ही अहिंसा है। धर्म ग्रन्थों के अनुसार व्यापक अर्थ में इसका मतलब ‘किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन व वाणी से कोई नुकसान नहीं पहुँचाना ही ‘अहिंसा’ है। ‘जैन’ एवं ‘हिन्दू धर्म में अहिंसा को बहुत महत्त्व दिया गया है। जैन धर्म का तो मूल मंत्र ही ‘अहिंसा परमो धर्मः’ अर्थात अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। इसके अलावा विश्व में भी अहिंसा का विचार रहा है। थोरो, टॉलस्टॉय, लाओत्से, कन्फ्यूशियस जैसे अहिंसावादी विचारक वैश्विक स्तर पर रहे है। आधुनिक भारत में महात्मा गांधी का नाम इसमें सबसे ऊपर आता है। ब्रिटिश शासकों से भारत को आजाद करवाने में गांधी ने इसे सबसे प्रभावी हथियार बना दिया।
महात्मा गांधी ने ‘अहिंसा’ को शोषक के खिलाफ लड़ने का प्रमुख औजार बनाया। विनय के माध्यम से अन्याय का प्रतिकार करते हए अन्यायी को ही बदल डालने को। कहा। गांधी ‘सत्य’ को अहिंसा का ही पर्याय मानते थे। बाद में दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने गांधी का ही अनुसरण करते हुए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी।
जीवन ‘अहिंसा’ से ही चलता है। अगर अहिंसा न हो तो मनुष्य हिंसक पशुओं की तरह लड़कर खत्म हो जाएगा। अहिंसा मनुष्य का स्वभाव है। हिंसा उसके स्वभाव में आयी विकृति या बीमारी है। मनुष्य समाज ने अगर विकास किया है तो अहिंसा के माध्यम से। आपस में हिलमिलकर सदियों से रहना ‘अहिंसा’ से ही संभव हो पाया है। अगर प्रत्येक मनुष्य ‘अहिंसा’ को मजबूती से अपने जीवन का अंग बना ले तो दुनिया में अपराध, नफरत, स्वार्थ, हिंसा, चोरी जैसी घटनाएं पूर्णतः खत्म हो जाएगी। मनुष्य प्रकृति से उतना ही लेगा जितनी उसको जरूरत है। प्रकृति का अत्यधिक दोहन करना, उससे जरूरत से ज्यादा लेना भी हिंसा है। अगर हम ऐसा करेंगे तो आनेवाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जरूरत के अनुसार करना चाहिए।
दुनिया की किसी भी समस्या का समाधान हिंसा से नहीं हो सकता। हिंसा हमेशा प्रतिहिंसा को जन्म देती है। यह कभी नहीं रुकनेवाला अंतहीन सिलसिला है। इसलिए सभी समस्याओं का समाधान बातचीत से, प्रेम और सौहार्द से ही हो सकता है। हम एक हिंसक समाज का निर्माण नहीं कर सकते। आँख के बदले आँख के सिद्धांत पर चले तो पूरी दुनिया ही अंधी हो जाएगी।
11) दूरदर्शन
आधुनिक युग विज्ञान का युग कहलाता है। इस युग में मानव की सुविधा के लिए विज्ञान ने अनेक चीजें दी है। मनोरंजन के नये – नये साधन दिये है। उनमें एक है दूरदर्शन। दूरदर्शन का स्थान आज बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है।
आज शहरों से लेकर गाँव तक के लोग दूरदर्शन की प्राप्ति के लिए उत्सुक हैं। सरकार ने बहुत से शहरों में दूरदर्शन की सुविधा प्रदान की है। सभी गावों को भी दूरदर्शन की व्याप्ति में लाने का प्रयत्न हो रहा है। जिस प्रकार रेडियों के द्वारा हम दूर की बातों को सुन सकते हैं उसी तरह दूरदर्शन से दूर की घटनाओं को हम घर बैठे देख सकते हैं। अमेरिका में जो कुछ हो रहा है उसको हम उसी समय अपने घर में बैठकर देख सकते हैं।
संसार के किसी भी कोने में हुईं घटनाओं को, चाहे वे सुखदायी हो या दुखदायी, यथावत् लोगों के सामने रखने का काम दूरदर्शन करता है। दूरदर्शन का उपयोग आजकल उच्च शिक्षा में भी किया जाता है। बड़े – बड़े वैज्ञानिक प्रयोग, शोध आदि का परिचय दूरदर्शन द्वारा सारे विश्व को कराया जाता है।
लोगों को शिक्षित करने में दूरदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत जैसे अर्धविकसित देश में छब्बीस प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं। अनपढ़ों को पढ़ाई, स्वास्थ्य, नागरिक शिक्षा आदि विषयों के बारे में जानकारी देने में दूरदर्शन के द्वारा अत्यधिक सहायता प्राप्त होती है।
दूरदर्शन मनोरंजन का प्रमुख साधन है। यह हमें मनोरंजन प्रदान करता है। दूरदर्शन सस्ते दामों पर विज्ञान और मनोरंजन को प्रदान करने में सफल हुआ है। लोग घर बैठे – बैठे बिना कष्ट के अपना मनोविकास और मनोरंजन कर सकते हैं। इस प्रकार दूरदर्शन आजकल एक सफल लोकप्रिय प्रचार – माध्यम साबित हुआ है।
दूरदर्शन से कुछ हानियाँ भी है। दूरदर्शन के प्रचार से सिनेमा उद्योग को कुछ धक्का लगा है। लोग अब घर में ही बैठ कर अपने पसंद की फिल्में देख सकते हैं। बड़े – बड़े राष्ट्रीय खेल, प्रतियोगिताएँ बिना पैसे दिये घर बैठ कर हम देख सकते हैं। इससे खेलों के मैदान में भीड़ कम हो गयी है। दूरदर्शन का उपयोग अधिक करने के कारण लोगों की दृष्टि भी कमजोर हो जाती है। दूरदर्शन में आज बच्चों की रुचि अधिक हो गयी है। इससे इसका असर उनकी पढ़ाई पर पड़ गया है। बच्चे अपनी पढ़ाई की ओर कम ध्यान दे रहे हैं। – दूरदर्शन के सभी कार्यक्रम नियंत्रित होने के कारण इसमें हानियों की अपेक्षा लाभ अधिक है। दूरदर्शन में उत्तम कार्यक्रम का प्रसार करना चाहिए।
12) किसी ऐतिहासिक स्थान की यात्रा
मुझे पिछली गर्मियों की छुट्टियों में दिल्ली की यात्रा करने का सौभाग्य मिला। मेरे लिए यह पहली यात्रा थी। इसलिए इस यात्रा का क्षण – क्षण मेरे लिए रोमांचक था। हम स्कूल के बीस बच्चे अपने दो अध्यापकों के साथ घूमने जा रहे थे।
रात सात बजे हमारी बस बेंगलूर से चली। सभी सो गए। नींद खुली तो मैनें स्वयं को दिल्ली में पाया। एक होटल के दालान में एक घंटा बस रुकी। हाथ – मुँह धोकर, चाय – नाश्ता करके सब अपनी – अपनी सीटों पर आ विराजे। बस चलने लगी।
ऐतिहासिक दिल्ली को देखने – समझने के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय चाहिए। इसके ऐतिहासिक स्मारकों में पुराना किला, लाल किला, जामा मस्जिद, सुनहरी मस्जिद, हुमायु का मकबरा, सिकन्दर लोदी का मकबरा, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह, सफदरजंग का मदरसा, सूरजकुण्ड, कुतुबमीनार, अशोक स्तम्भ, फीरोजशाह का कोटला और योग माया मंदिर आदि दर्शनीय हैं। इनमें लालकिला, जामा मस्जिद, पुराना किला, कुतुबमीनार और अशोक स्तम्भ की विशेष बनावट और उस युग की वास्तुकला पर्यटकों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।
दिल्ली अपने ऐतिहासिक स्थलों के साथ – साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्थलों के लिए भी प्रसिद्ध है। यह सभी धर्मों के स्मारकों को समेटे हुए है। बिरला मंदिर, शक्ति मंदिर, भैरों मंदिर, कालका जी का मंदिर, लोटस टेम्पल, फतहपुरी की मस्जिद, ईदगाह, स्वामी मलाई मंदिर, बौद्ध विहार, दीवान हाल और जैन लाल मंदिर आदि ऐसे धार्मिक स्थल हैं जो देश की धार्मिक व सांस्कृतिक कला के प्रतीक हैं।
यहाँ पर आधुनिक इतिहास के भी अनेक दर्शनीय स्थल हैं जिनमें तीन मूर्ति भवन, राष्ट्रपति भवन, संसद् भवन, इंदिरा स्मारक, बिरलाभवन, राजघाट, शांतिवन, विजय घाट, शक्ति स्थल, किसान घाट, समता स्थल, इंडिया गेट, केन्द्रीय सचिवालय, इंदिरा गांधी स्टेडियम, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, कालिन्दी कुंज, चिड़ियाघर और राष्ट्रीय संग्रहालय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
दिल्ली के ऐतिहासिक व दर्शनीय स्थलों को देखकर मनोरंजन के साथ – साथ ज्ञानवर्द भी होता है। मनोरंजन के अन्य स्थलों में राष्ट्रपति उद्यान, बाल भवन, बुद्ध जयंती पार्क, ओखला, डॉल म्यूजियम उल्लेखनीय हैं। वास्तव में बागों की महारानी दिल्ली ऐतिहासिक नगरी ही नहीं, अपितु आधुनिकता की परिचायक भी है। उसके दर्शन करके हम वापसी को चले।
13) स्त्री शिक्षा की आवश्यकता
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य समाज को ध्यान में रखकर ही करता है। मनुष्य समाज का प्रत्येक सुख और आनंद चाहता है। सुख प्राप्ति के कई साधन हो सकते हैं परंतु शिक्षा सबसे अधिक आवश्यक है। शिक्षा की आवश्यकता समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से है। स्त्रियाँ शिक्षित होकर अपने उत्तरदायित्व को ठीक तरह से निभा सकती हैं। उनकी अशिक्षा का प्रभाव समाज पर कभी भी अच्छा नहीं पड़ता। इसलिए स्त्री शिक्षा की आवश्यकता है। स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी होती हैं। यदि वे सुशिक्षित होंगी तो उनकी संतान भी उन्हीं के अनुरूप होगी।
जीवन – रथ के दो चक्र हैं – स्त्री और पुरुष। इन दोनों को शिक्षा की आवश्यकता है। यदि गृहिणी सुशिक्षित रहती है तो वह अपने पति के कार्यों में हाथ बटाती है तथा उसकी सहायता करती है। अतः स्त्रियों की शिक्षा आवश्यक है। शिक्षित स्त्रियाँ बच्चों के लालन – पालन को बड़े सुंदर ढंग से करती हैं। इससे भावी संतानों में बचपन से ही अच्छे संस्कार जमते रहते हैं। राष्ट्र में स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, उन्हें सम्मानित जीवन व्यतीत करने के योग्य होना ही चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उन्हें परावलंबी तथा निराश्रित न बनना पड़े, उनमें आत्मविश्वास बना रहे। इसलिए स्त्री को शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है। विवेक शक्ति के उचित विकास के लिए स्त्री शिक्षा जरूरी है। सामाजिक रहन – सहन को ऊपर उठाने के लिए स्त्री शिक्षा की जरूरत है। यदि स्त्रियों को पुरुषों के समान स्वतंत्र और स्वावलंबी बनाकर पुरुषों के समानांतर चलना है तब तो उनकी शिक्षा प्रणाली पुरुषों के समान होनी चाहिए।
जिस प्रकार एक अशिक्षित पुरुष से समाज एवं राष्ट्र का कोई हित – साधन नहीं हो सकता, उसी प्रकार निरक्षर नारियाँ भी समाज के ऊपर बोझ हैं। पढ़ लिख जाने पर नारी के ज्ञान का विकास होता है। उसमें उचित – अनुचित को समझने का विवेक उत्पन्न हो जाता है। शिक्षा के द्वारा ही कूपमण्डूकता से मुक्ति पाकर भविष्य – दृष्टा हो जाती है। अज्ञान, अविश्वास, भय, रूढ़िवादिता और मानवीयता जैसे अवगुणों का नाश होकर उनके स्थान पर सरल, सात्विक एवं कल्याणप्रद मानवीय गुणों का उसमें विकास होता है। पढ़ी – लिखी नारी अपनी अमूल्य सलाहों से परिवार के नीरस एवं दुःखी जीवन में मधुर रस का संचार करती हैं।
माता बालक की गुरु होती है। इसलिए जो आज के बालक हैं कल भावी राष्ट्र के नागरिक हैं। उनको योग्य नागरिक बनाना नारी का ही काम है। बच्चों में अच्छे गुणों का विकास करने का श्रेय माँ को ही है। नम्रता, शिष्टाचार, सदाचार आदि गुण बच्चे माँ से ही सीखते हैं। शिवाजी को वीर बनाने का श्रेय जीजाबाई को ही था। गाँधीजी के सत्य और अहिंसा के सन्देश के पीछे उनकी माँ का ही अधिक योगदान था। अतः यह स्पष्ट है कि नारी बालक को जिस ओर चाहे मोड़ सकती है। वह चाहे तो पुत्र को बलवान, धीर एवं नम्र बना सकती है और वह चाहे तो पुत्र को चरित्रहीन, पापी, क्रूर भी बना सकती है।
इस विश्व में शान्ति, प्रेम, चरित्र आदि का विस्तार करने के लिए स्त्री – शिक्षा अनिवार्य हैं। पुरुषों को भी चाहिए कि वे भी नारियों का सम्मान करते हुए उनके अधिकारों की अवहेलना न करें। तभी समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होगा क्योंकि शिक्षित नारियाँ ही प्रत्येक राष्ट्र की अमूल्य निधि और मणियाँ हैं।
14) राष्ट्रीय एकता/राष्ट्रीयता
राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार है उस राष्ट्र के लोगों का अपने देश के प्रति प्रेम और आपसी स्नेहभाव का होना। इसे राष्ट्रीयता कहते है। साधारण शब्दों में राष्ट्रीयता का अर्थ अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम का भाव रखना तथा व्यक्तिगत, जातिगत हितों को त्याग कर राष्ट्र – हित को सर्वोपरि महत्व देना है। राष्ट्र के प्रति त्याग और प्रेम की भावना देशवासियों में एकता भाव उत्पन्न करती है। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र की समृद्धि और सुख – शान्ति के लिए आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा करने के अलावा राष्ट्रीय समस्याओं के निवारण और राष्ट्रीय विपदाओं का सामना करने के लिए लौह – प्राचीर है।
राष्ट्रीय एकता एक अदृश्य सूत्र है जो देश के लोगों को अपने में पिरोने का कार्य करती है। राष्ट्रीय एकता के अभाव में साम्प्रदायिकता, भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रीयता, अनुशासनहीनता आदि विभिन्न समस्याएं अपना सिर उठाने लगती हैं।
आज हमारे देश भारत के समक्ष राष्ट्रीय एकता की विषम तथा गम्भीर समस्या उपस्थित हैं। भारत में विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ बड़े जोरों से उभर रही हैं। आज साम्प्रदायिक भावना, भाषायी अथवा क्षेत्रीय स्थान, उभरती हुई जातीय तथा जनजातीय प्रवृत्तियाँ, धार्मिक विद्वेष तथा प्रान्तीय भावना देश को खण्डों में विभक्त करने के लिए प्रवृत्त है। ये समस्त तत्व राष्ट्रीय एकता में बाधक सिद्ध हो रहे हैं। राष्ट्रीय एकता एक मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसमें लोगों के भीतर एकता, सामंजस्यता और तारतम्यता की भावना का विकास, सामान्य नागरिकता और राष्ट्र के प्रति विश्वसनीयता की भावना सम्मिलित है।
हमारा देश जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के राष्ट्रों में द्वितीय स्थान पर आता है। भौगोलिक दृष्टि से भारत प्राकृतिक विभाजनों से ओत – प्रोत है। सामाजिक दृष्टि से भी विभिन्न जातियों, उपजातियों, भाषाओं तथा धर्म में विभक्त है। परंपराप्रिय भारतवासियों के मन – मानस में स्थानीय प्रेम प्रबल रूप से विद्यमान है। इसके फलस्वरूप एकता का मार्ग छिपा हुआ सा प्रतीत होता है। अलग – अलग सामाजिक घटक एक दूसरे को विरोधी दिशाओं में खींचने का प्रयास कर रहे हैं, इससे एकता का ताना – बाना बिखरा हुआ सा दृष्टिगोचर होता है।
जातिगत विभाजन राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक बनकर खड़ा हुआ हैं। जनजातिवाद . भी आज राष्ट्रीय एकता में बाधा है। पंथवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बड़ी भारी चुनौती है। पंथवाद एक ही धर्म के अनेक पंथों के बीच एक विभाजन की रेखा बना देता है। ‘भूमिपुत्र सिद्धान्त’ भी आज एक नयी बाधा के रूप में अवलोकनीय है। इस सिद्धान्त के अनुसार स्थान विशेष की सुविधाओं के यही लोग अधिकारी हैं जो वहाँ स्थायी रूप से निवास करते हैं। क्षेत्रवाद भी एकता का एक बड़ा बाधक तत्व है। क्षेत्रवाद के आधार पर क्षेत्र विशेष के लोग अपने पृथक राज्य का गठन करना चाहते हैं। क्षेत्रीय निवासी अपनी पृथक सांस्कृतिक विरासत बनाए रखने के आकांक्षी होते हैं, यह भावना एकता के मार्ग में बाधा है।
अतः राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक स्थलों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना होगा। विभाजनात्मक राजनीतिक दलों तथा संस्थाओं पर रोक लगानी होगी। राजनीतिक दलों के लिए जो आचार संहिता बनाई जाए उस पर चलने के लिए उन पर नैतिक दबाव भी डालना होगा। सबके मन – मानस में यह बात बैठानी होगी कि हम सब भारत माता की सन्तान हैं। भारत के हित में ही हमारा हित है तथा इसके पतन में हमारा पतन है।
15) खेल जगत में क्रिकेट का स्थान
खेल हमारे जीवन का एक प्रमुख हिस्सा है। इस शरीर को स्वस्थ, लचीला, चुस्त और फुर्तीला बनाए रखने में खेलों की उपयोगिता सर्वाधिक है। खेलों के द्वारा हमारे शरीर के विभिन्न अंगों का व्यायाम स्वतः हो जाता है। इससे हमारी समस्त मांसपेशियां सुदृढ़ हो जाती हैं। हममें रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है और हमारी इंद्रियां ठीक – ठीक काम करने लगती हैं। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है। अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि खेल मात्र हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी विकसित करता है।
खेल कई तरह के होते हैं जिन्हें मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा गया है – इनडोर खेल और आउटडोर खेल। इन्डोर खेल जैसे ताश, लुडो, केरम, सांपसीड़ी, शतरंज, बिलियर्ड्स आदि ये मनोरंजन के साथ साथ बौद्धिक विकास में सहायक है, वहीं आउटडोर खेल जैसे क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल, टेनिस आदि शरीर को स्वस्थ बनाए रखने में लाभकारी है।
हमारे देश भारत में क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। वैसे यह खेल कम ही देशों में खेला जाता है फिर भी भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी लोकप्रियता सर्वाधिक है। पहले भारत में हॉकी ज्यादा लोकप्रिय थी। परन्तु धीरे – धीरे यहाँ क्रिकेट सभी खेलों को पीछे छोड़ते हुए शिखर पर पहुँच गया। क्रिकेट का जादू भारतवासियों के सिर चढ़कर बोलता है। भारत के गाँव हो या शहर, गली मुहल्लों में, खुले मैदानों में, प्रत्येक स्थान पर क्रिकेट का खेल देखा जा सकता है। आज का नौजवान या तो फिल्म का हीरो बनने का सपना देखता है या क्रिकेट का खिलाड़ी। क्रिकेट ने अनेक अवसरों पर भारत को सम्मान दिलाया है। भारत दो बार क्रिकेट का विश्व कप जीत चुका है। भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, वेस्टइंडीज, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, बंगलादेश, जिम्बाब्वे, केन्या आदि देशों की टीम खेलती है। स्पष्टतः क्रिकेट विश्व के सभी देशों का प्रिय खेल नहीं है। परन्तु जहाँ भी यह खेला जाता है, वहाँ इसके दीकनों की कमी नहीं है।
इस तरह खेल जगत में क्रिकेट का स्थान शीर्ष पर है। क्रिकेट ने इस देश में खेलों के प्रति लोगों के मन में आकर्षण पैदा किया है।
16) जीवन में त्योहारों का महत्त्व
त्योहार सांस्कृतिक चेतना तथा मानव की उन्नत भावनाओं के प्रतीक हैं। ये जन – जीवन में जागृति के प्रेरक और आस्था के द्योतक हैं। त्योहार समष्टिगत जीवन में राष्ट्र की आशा, आकांक्षा, उत्साह एवं उमंगों के प्रदाता हैं। ये राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता भी प्रदर्शित करते हैं। यह त्योहारों की ही प्रतापी प्रथा है, जिसने भारतवर्ष को मानव भूमि से देव भूमि बना दिया।
प्रत्येक जाति एवं देश के अपने त्योहार होते हैं। ये त्योहार उस जाति एवं देश की जीवंतता के ज्वलंत प्रमाण होते हैं। अतः कोई भी जाति एवं राष्ट्र अपना सांस्कृतिक गौरव और पारंपरिक महत्व बनाए रखने के लिए इन त्योहारों को मनाना अपना पावन कर्तव्य समझता है।
किसी भी समाज के तीज – त्योहार उसके लिए आनंद के प्रेरणास्त्रोत हैं। इन तीज – त्योहारों के अपने आदर्श हैं। प्रेम, एकता, त्याग, दान, दया तथा सेवा के आदर्श ही प्रत्येक त्योहार के प्राण होते हैं। इन्हीं आदर्शों से प्रेरित होकर वह समाज उन्नत और समृद्ध होता है। यही कारण है कि हम अपने त्योहारों को बड़े उल्लास से मनाते हैं। भारतीय जन जीवन में त्योहारों का बहुत महत्त्व है। इनके बिना हमारा जीवन नीरस है। त्योहार जीवन में परिवर्तन तथा उल्लास लेकर आते हैं। मानव जीवन पग – पग पर संघर्षशील तथा पीड़ा युक्त है। इस तनाव और पीड़ा को भुलाने के लिए त्योहारों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
प्रत्येक राष्ट्र में त्योहारों का अत्यंत महत्व है। भारत में सर्वाधिक त्योहार मनाए जाते हैं। भारत त्योहारों का देश है। यहाँ विभिन्न जाति एवं धर्म के लोग निवास करते हैं। प्रत्येक धर्म के लोग नित्य अपना – अपना उत्सव मनाते रहते हैं। इसका कारण यह है कि भारतवर्ष एक विशाल क्षेत्र, दीर्घकालीन परंपरा वाला, अध्यात्म प्रधान, अपनी संस्कृति से युक्त, ऋतु परंपरा तथा आदर्श नायकों के कर्तृत्व वाला देश है।
भारत में दो प्रकार के त्योहार मनाए जाते हैं – धार्मिक तथा राष्ट्रीय। प्रथम वर्ग के त्योहार हमारी पौराणिक संस्कृति को प्रकट करते हैं जैसे – होली, दुर्गा पूजा, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, ईद, क्रिसमस, बैसाखी आदि। दूसरे वर्ग में वे त्योहार आते हैं, जो राजनैतिक दृष्टिकोण से समृद्ध हैं तथा हमारी बौद्धिक चेतना को जागृत करते हैं जैसे – गणतंत्रता दिवस, स्वतंत्रता दिवस, शिक्षक दिवस, पर्यावरण दिवस, आदि। कुछ त्योहार प्रांत विशेष में मनाए जाते हैं जैसे – बिहु, पोंगल, ओणम, आदि।
ये समस्त त्योहार भारतीय जन – जीवन में उमंग और उत्साह भरते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। ये त्योहार जीवन की नीरसता समाप्त करके हमारे अंदर देश – संस्कृति के प्रति लगाव और प्रेम उत्पन्न करते हैं। राजनैतिक महापुरुषों के जन्म दिवस हमें उनके आदर्शों का पालन करने की प्रेरणा देते हैं, ताकि हमारा देश उन्नति कर सके। आज भौतिकतावादी युग में त्योहारों का महत्व अधिक से अधिक बढ़ता जा रहा है।
17) विद्यार्थी और अनुशासन
अनुशासन का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा – क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक क्षेत्र में भी अनुशासन का बोलबाला है। इसके बिना जीवन में एक क्षण भी कार्य नहीं चल सकता। गृह, पाठशाला, कक्षा, सेना, कार्यालय, सभा इत्यादि में अनुशासन के बिना एक क्षण भी कार्य नहीं चल सकता। अतः अनुशासन का अर्थ नियंत्रण में रहना, नियम बद्ध कार्य करना है। इसका वास्तविक अर्थ है, बुद्धि एवं चरित्र को सुसंस्कृत बनाना।
अनुशासन का महत्व जीवन में उसी प्रकार व्याप्त है जिस प्रकार कि भोजन एवं पानी। अनुशासन मानव जीवन का आभूषण है, श्रृंगार है। मनुष्य के चरित्र का यह सबसे शुभ लक्षण है। विद्यार्थी जीवन के लिए तो यह नितांत आवश्यक है। विद्यार्थी जीवन का परम लक्ष्य विद्या प्राप्ति है और विद्या – प्राप्ति के लिए अनुशासन का पालन बहुत आवश्यक है। अनुशासन न केवल व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है, बल्कि राष्ट्रीय जीवन का आधार भी है।
विद्यार्थी जीवन भावी जीवन का नींव है। इस जीवन में यदि अनुशासन में रहने की आदत पड़ जाए तो भविष्य में प्रगति के द्वार खुल जाते हैं। एक ओर तो हम कहते हैं कि ‘आज का विद्यार्थी कल का नागरिक है’ और दूसरी ओर वही विद्यार्थी अनुशासन भंग करके आज राष्ट्र के आधार – स्तंभों को गिरा रहे हैं।
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन हीनता अत्यंत हानिकारक है। इससे माता – पिता का मेहनत से कमाया हुआ धन व्यर्थ चला जाता है। देश और समाज को अनुशासन हीनता से क्षति पहुँचती है। जो विद्यार्थी अनुशासन भंग करता है वह स्वयं अपने हाथों से अपने भविष्य को बिगाड़ता है। बसों को आग लगाना, सरकारी संपत्ति को नष्ट करना, अध्यापकों और प्रोफेसरों का अपमान करना, स्कूल और कालेज के नियमों का उल्लंघन करना और पढ़ाई के समय में राजनीतिक गतिविधियों में समय नष्ट करना इत्यादि कुछ अनुशासनहीनता के रूप हैं। इस अनुशासनहीनता के व्यक्तिगत, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक तथा कुछ अन्य कारण हो सकते हैं। आज स्कूल और कालेज राजनीति के केंद्र बन गए हैं। आज विद्यार्थियों में परस्पर फूट पैदा की जाती है। ये राजनीतिक दल ऐसा करके न केवल विद्यार्थी – जीवन की पवित्रता को भंग करते है बल्कि देश में अशांति, हिंसा, विघटन की भावना उत्पन्न करते हैं। स्कूल और कालेज के जीवन में राजनीति के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
आज नवयुवकों को अपने चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है। शिक्षा में कुछ ऐसे आधारभूत परिवर्तन होने चाहिए जिसमें विद्यार्थी को अपने जीवन के प्रति निष्ठा, वर्तमान के प्रति प्रेम और अतीत के प्रति श्रद्धा बढ़े। चरित्र और नैतिक पतन की जो प्रतिष्ठा हो चुकी है उसके भी कारण खोजे जाएँ और ऐसी आचार – संहिता बनाई जाए जिसका विद्यार्थी श्रद्धापूर्वक पालन कर सके।
विद्यार्थियों में शक्ति का अपार भंडार होता है। उसका सही प्रयोग होना चाहिए। स्कूल और कालेजों में खाली समय में खेलने के लिए सुविधाएँ प्राप्त की जानी चाहिए। विद्यार्थियों की रूचि का परिष्कार करके उन्हें सामाजिक और सामूहिक विकास योजनाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाए। नैतिक गिरावट के कारण और परिणाम उन्हें बताए जाए जिससे वे आत्मनिरीक्षण करके अपने जीवन के स्वयं निर्माता बन सकें। शिक्षितों की बेकारी दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए। अनुशासनहीनता से बचकर विद्यार्थी जब अपने कल्याण की भावना के विषय में सोचेंगे तभी उनका जीवन प्रगति – पथ पर बढ़ सकेगा। अनुशासन में बँधकर रहने पर ही वह देश एवं समाज का योग्य नागरिक बन सकता है। इसी में देश, जाति, समाज एवं विश्व का कल्याणं निहित हैं।
18) रेलवे स्टेशन का एक दृश्य
अधिकांश शहरों के रेलवे स्टेशनों का दृश्य किसी मेले जैसा भीड़ – भाड़ युक्त, आकर्षक, कौतूहल से भरपूर शोर – गुल वाला होता है। रेलवे स्टेशन वह स्थल है, जहाँ विभिन्न स्थानों से आने – जाने वाली रेलगाड़ियों का संगम होता है। यह रेल द्वारा यात्रा करनेवालों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है।
रेलवे स्टेशन का बाहरी प्रांगण बहुत कोलाहल पूर्ण होता है। स्टेशन के बाहर कार, स्कूटर, तांगे, साइकिल, रिक्शा, टैक्सी तथा बसों का आवागमन लगा रहता है। इनके खड़े होने के लिए भिन्न – भिन्न स्टैंड बने होते हैं। जैसे ही वाहन आते हैं, वैसे ही कुली यात्रियों को घेर लेते हैं। यहाँ पर यातायात पुलिस का नियंत्रण कक्ष होता है। स्टेशन के मुख्य भवन के बाईं या दाईं ओर प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के कई टिकट घर होते हैं। यहाँ आरक्षण की भी व्यवस्था होती है। इन्हीं टिकट घरों से प्लेटफॉर्म टिकट भी मिलता है। मुख्य प्रवेश द्वार के समीप पूछताछ कार्यालय होता है। यहाँ से ट्रेनों के आने – जाने का समय, प्लेटफॉर्म नंबर आदि की जानकारी होती है।
प्रवेश प्रांगण का दृश्य अपेक्षाकृत शांत होता है। वहाँ सैंकड़ों व्यक्ति टिकट लेने के लिए पंक्तिबद्ध होकर खड़े रहते हैं। जिन यात्रियों की गाड़ी देर से आनी होती है. वे चादर आदि बिछाकर बैठे या लेटे होते हैं। वहाँ का दृश्य विविधतापूर्ण होता है। कोई बच्चों के साथ भोजन कर रहा है, तो कोई आपस में गप लड़ा रहा है। प्रवेश प्रांगण में कहीं सामान की बुकिंग हो रही है, तो कहीं डाक के थैलों को गाड़ी में चढ़ाने की तैयारी हो रही है। प्रवेश द्वार पर टिकट कलेक्टर फुर्ती से टिकट लेने में व्यस्त रहते हैं।
जहाँ रेलगाड़ियाँ आकर रुकती हैं, उसे ‘प्लेटफॉर्म’ कहते हैं। प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए कई द्वार होते हैं। प्लेटफॉर्म पर वही व्यक्ति आ – जा सकता है, जिसके पास प्लेटफॉर्म टिकट या यात्रा टिकट होता है। रेलवे स्टेशन के अंदर अनेक प्लेटफॉर्म होते हैं। एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए ओवरब्रिज बने होते हैं। लगभग सभी प्लेटफॉर्मों पर बहुत भीड़ होती है। सूचना प्रसारण की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। यह सूचना प्लेटफार्म पर खड़े सभी लोग भली – भांति सुन सकते हैं। वहाँ यात्रियों की सुविधा के लिए पानी के प्याऊ भी होते हैं। जब गाड़ी आती है, तो यात्री उसमें बैठने के लिए तैयार होने लगते हैं। ऐसे में प्लेटफॉर्म पर अजीब सी हलचल दिखाई पड़ती है। उतरने वाले यात्री कुली या अपने सगे – संबंधी को पुकारते – तलाशने लगते हैं। लोग अपने मित्रों तथा सगे – संबंधियों को लेकर वापस चले जाते हैं।
रेलवे स्टेशन की पटरी की जांच – परख करके उसे साफ – सुथरा रखा जाता है। कभी – कभी लोग रेलवे पटरी से ही प्लेटफॉर्म पार करते देखे जाते हैं, जो अत्यंत घातक कार्य होता है। क्योंकि पटरियों पर कभी भी रेलगाड़ियाँ आ – जा सकती हैं। ऐसे में किसी भी प्रकार की दुर्घटना हो सकती है।
रेलवे स्टेशन पर भारत के प्रत्येक प्रदेश के लोग अपनी – अपनी वेशभूषा में अपनी प्रांतीय भाषा बोलते हुए दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वहाँ समूचा भारत एकत्रित हो गया हो। प्लेटफॉर्म एक सजा हुआ भीड़ – भाड़ वाला बाजार दिखता है। कहीं खाने – पीने की वस्तुओं के स्टाल एवं ठेले दिखाई देते हैं, तो कहीं खेल – खिलौनों तथा किताबों आदि की रेहड़ियां दिखाई देती हैं। प्रत्येक प्लेटफॉर्म पर चाय – कॉफी वाले अनेक होटल होते हैं। गाड़ी से उतरकर जाने वाले यात्रियों में बहुत हड़बड़ाहट होती है।
इस प्रकार प्रत्येक रेलवे स्टेशन एक ऐसा मंच लगता है, जहाँ ऊंच – नीच, जात – पांत, प्रांतीयता एवं भाषावाद का कोई स्थान नहीं होता। वह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। रेलवे स्टेशन सभी प्रकार की सुविधाओं से सुसज्जित होते हैं।
19) बेरोजगारी की समस्या
बेरोजगारी का अर्थ है – काम चाहने वाले व्यक्ति को कार्य क्षमता रहते हुए भी काम न मिलना। बेरोजगारी किसी भी राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है। बेरोजगारी के कारण राष्ट्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है, जिससे वे त्रस्त हैं। भारत में यह समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। भारत के गांव – शहर तथा शिक्षित – अशिक्षित सभी इस समस्या से ग्रस्त हैं।
अब बेरोजगारी की समस्या के कारण और निवारण – दोनों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि, कृषि पर अधिक भार, प्राकृतिक प्रकोप, मशीनीकरण एवं दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली – बेरोजगारी के मूल कारण हैं। भारत में उत्पादन एवं रोजगार वृद्धि पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। फलतः बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है।
बेरोजगारी की समस्या दूर करने के लिए शिक्षा एवं परिवार नियोजन की सहायता से जनसंख्या वृद्धि की दर घटाना आवश्यक है। भारत की आबादी का 60 प्रतिशत भाग कृषि पर आधारित है। इधर जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि भूमि में दिनों – दिन कमी हो रही है। इसके कारण भी बेरोजगारों की संख्या में इजाफा हो रहा है। भारतीय किसानों को प्राकृतिक प्रकोपों का भी सामना करना पड़ता है – कभी अतिवृष्टि, तो कभी अनावृष्टि। इससे लोग बेकार हो जाते हैं। अतः इस समस्या के समाधान हेतु सहकारिता एवं वैज्ञानिक उपाय खेती के लिए अपनाने होंगे।
वर्तमान युग तो मशीनों का युग है। इन मशीनों ने उद्योगों में लगे लाखों मजदूरों के काम छीनकर उन्हें बेकारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया है। इसी कारणवश हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मशीनीकरण का विरोध किया था। इससे छुटकारा पाने के लिए गाँवों तथा शहरों में कुटीर और लघु उद्योगों का जाल फैलाना होगा।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन लाकर ही इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसके लिए व्यावहारिक शिक्षा प्रणाली अपनानी होगी, जिससे ज्ञानी मस्तिष्क के साथ साथ कुशल हाथ भी निकलें अर्थात शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाया जाए। साथ ही साथ लोगों में नौकरी परस्ती की प्रवृत्ति के बजाय रोजगार परक प्रवृत्ति जागृत करनी होगी।
बेरोजगारी का दुष्प्रभाव प्रकारांतर से समाज पर पड़ता है, जिससे समाज अनेक समस्याओं से ग्रस्त हो जाता है। खासकर शिक्षित बेरोजगार युवकों का मस्तिष्क रचनात्मक न रहकर विध्वंसात्मक हो जाता है। समाज में आश्चर्य चकित करने वाले अपराध हो रहे हैं, जो बेरोजगारों के मस्तिष्क की उपज हैं। अशिक्षितों के बेरोजगार रहने से उतनी गंभीर समस्या नहीं उत्पन्न होती, जितनी गंभीर समस्या शिक्षित बेरोजगारों से उत्पन्न होती है।
20) स्वतन्त्रता दिवस
स्वतंत्रता दिवस हमास महान् राष्ट्रीय पर्व है। यह पर्व प्रति वर्ष पन्द्रह अगस्त को समस्त भारत में अति उत्साह और हर्ष के वातावरण में मनाया जाता है। यही वह पवित्र दिवस है, जब शताब्दियों की पराधीनता के बाद भारत स्वाधीन हुआ था। सन् 1947 की पन्द्रह अगस्त को ही हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी।
राष्ट्रीय स्तर पर इस पर्व का मुख्य आयोजन दिल्ली के लाल किले में होता है। इस समारोह को देखने के लिए भारी जनसमूह उमड़ पड़ता है। लाल किला मैदान व सड़कें जनता से खचाखच भरी होती हैं। यहाँ प्रधानमंत्री के आगमन के साथ ही समारोह का शुभारम्भ हो जाता है। सेना के तीनों अंगों जल, थल और नौसेना की टुकड़ियाँ तथा एन.सी.सी. के केडेट सलामी देकर प्रधानमंत्री का स्वागत करते हैं। प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर बने मंच पर पहुँच कर जनता का अभिनन्दन स्वीकार करते हैं और राष्ट्रीय ध्वज लहराते हैं। ध्वजारोहण के समय राष्ट्र ध्वज को सेना द्वारा इकत्तीस तोपों की सलामी दी जाती है। इसके बाद प्रधानमंत्री राष्ट्र की जनता को बधाई देने के बाद देश की भावी योजनाओं पर प्रकाश डालते हैं। साथ ही पिछले वर्ष पन्द्रह अगस्त से इस वर्ष तक की काल में घटित प्रमुख घटनाओं पर चर्चा करते हैं। भाषण के अंत में तीन ब हिन्द’ का घोष करते हैं जिसे वहाँ उपस्थित जनसमूह बुलन्द आवाज में दोहराता है।
यह राष्ट्रीय पर्व प्रतिवर्ष प्रत्येक नगर में बड़े धूम – धाम से मनाया जाता है। विद्यालयों में छात्र अपने इस ऐतिहासिक उत्सव को बड़े उल्लास और उत्साह के साथ आयोजित करते हैं वास्तव में यह भारत के गौरव और सौभाग्य का पर्व है, जो हमारे हृदयों में नवीन आशा. नवीन स्फूर्ति, उत्साह और देश भक्ति का संचार करता है। यह उत्सव हमें स्मरण कराता है कि स्वाधीनता को पाना जितना कठिन है, उसे सुरक्षित रखना उससे भी अधिक कठिन है। अतः सभी भारतवासियों को सभी प्रकार के भेद – भाव भुलाकर राष्ट्र की उन्नति के लिए तत्पर रहना चाहिए।
21) जनसंख्या विस्फोट
भारत को स्वतंत्र हुए पैंसट साल से ज्यादा हुए हैं। इन वर्षों में देश ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है। कृषि, विज्ञान, उद्योग – धंधे आदि में हमारा देश बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है, किंतु फिर भी उसका लाभ दिखाई नहीं पड़ रहा है। आम आदमी आज भी गरीब है। देश में आज भी लोग भूख से मर रहे हैं। बहुतों के पास तन ढकने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं हैं। वे झुग्गी – झोंपड़ियों में रहते हैं। सहज ही प्रश्न उठता है कि इसका कारण क्या है? और इस प्रश्न का सीधा – सरल उत्तर है – भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या।
आज हमारी हर बड़ी समस्या के मूल में जनसंख्या की समस्या है। यातायात और परिवहन के साधनों में अपार वृद्धि हुई है। रेलों – बसों की संख्या अधिक है फिर भी भीड़ – भाड़ दिखाई पड़ती है। आप शांति और सुविधा से यात्रा नहीं कर सकते। अस्पतालों में, प्लेटफ़ार्मो पर, विद्यालयों में, बाजारों में, कार्यालयों में, किसी भी सार्वजनिक स्थान पर दृष्टि डालिए आपको लोगों के सिर ही सिर दिखाई पड़ेंगे।
इस भीड़ – भाड़ का परिणाम यह है कि हमारी सारी आधारभूत सुविधाएँ, हमारे सारे संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं। अस्पताल जितने खोले जाते हैं, मरीजों की संख्या उससे कई गुना बढ़ जाती है। हर वर्ष हजारों नए विद्यालय खुलते हैं, पर अनेक छात्रों को मनचाहे विद्यालय में प्रवेश नहीं मिलता। कक्षाओं में छात्रों की संख्या इतनी हो जाती है कि बैठने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं होता। यह दशा तब है जब आज भी लाखों बच्चे विद्यालय में प्रवेश नहीं लेते हैं।
बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या वृद्धि की समस्या की ही उपज है। अनेक प्रकार के उद्योग – धंधे खुले हैं। कृषि क्षेत्र में आशा से बढ़कर प्रगति हुई है। नए रोजगार के लाखों अवसर बने, फिर भी बेरोजगारों की संख्या में कमी नहीं हुई, बल्कि बेरोजगारी की समस्या और अधिक भयंकर होती जा रही है। बेरोजगारी से अनेक सामाजिक बुराइयाँ जन्म लेती हैं। अपराध बढ़ते हैं, असामाजिक तत्व पनपते हैं। सुख – चैन और शांति भरा जीवन सपना हो जाता है।
हमारा देश जनसंख्या की दृष्टि से संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश है। सारे विश्व की जनसंख्या का लगभग छठा भाग भारत में बसा है जबकि भारत का क्षेत्रफल विश्व के क्षेत्रफल का लगभग 2.4 प्रतिशत ही है। आज हमारी जनसंख्या एक अरब बीस लाख से अधिक हो चुकी है। यदि इस पर शीघ्र ही अंकुश नहीं लगाया गया तो भीषण संकटों का सामना करना पड़ेगा।
जनसंख्या की वृद्धि रोकने के लिए कुछ ठोस उपाय करने होंगे। सबको इस समस्या के प्रति सजग करना होगा। देशवासियों को बताना होगा कि जनसंख्या वृद्धि को रोकना क्यों आवश्यक है। जनसंख्या रोकना हमारा परम कर्तव्य है और इस कर्तव्य का पालन सच्ची देशभक्ति है।
22) मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना
जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी घटती है कि हम जीवन भर उसे भूला नहीं पाते। यह अविस्मरणीय होती है। एक ऐसी ही घटना मेरे जीवन में भी घटी थी जो मुझे अक्सर याद आती है। तब मैं बहुत रोमांचित हो उठता हूँ। यह उस समय की बात है जब मैं दिल्ली से बेंगलूरु नहीं आया था। एक बार हमारे स्कूल में प्रवास का कार्यक्रम बनाया गया। हमारे स्कूल के दसवीं कक्षा के सभी छात्र इसके लिए तैयार हो गए। यह कार्यक्रम एक नहर के किनारे बनाया गया था। हम सभी प्रातः वहाँ पहुँच गए। हमारे अध्यापक भी हमारे साथ थे। हम सभी घर से खाना लेकर पहुँचे थे। हमारे कक्षा अध्यापक ने सभी छात्रों को सख्त हिदायत दी थी कि कोई भी बिना बताए इधर – उधर नहीं जाएगा। हमनें क्रिकेट खेला। कुछ छात्र जिन्हें क्रिकेट में रुचि नहीं थी वे आसपास ही टहलने लगे। बहुत ही सुन्दर दृश्य था। लड़कियां अंताक्षरी खेल रही थी। खेलकूद के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। छात्र एवं छात्राओं ने नृत्य प्रस्तुति दी।
♦ कविता – पाठ भी हुआ।
दोपहर हो चुकी थी। तभी अध्यापकों का ध्यान कुछ छात्रों पर गया। वे वहाँ उपस्थित नहीं थे। सबको बहुत चिन्ता हुयी। अध्यापकों ने कुछ छात्रों की टोलियां बनाकर स्वयं भी उन्हें खोजने निकले। मैं भी एक समूह में था। हम नहर के आसपास उन्हें ढूँढ़ने लगे। तभी हमें कुछ लोगों के चिल्लाने की आवाज आईं। बचाओं! बचाओं! हमने देखा कि हमारे कुछ साथी पानी में थे। एक छात्र था जिसे तैरना नहीं आता था। वह डूब रहा था। कोई भी आगे बढ़कर बचाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। वह गहरे पानी की तरफ चला गया था। उसे असहाय स्थिति में देख मैंने आव देखा न ताव पानी में कूद पड़ा। मुझे तैराकी आती थी। मैं तैरते हुए उसके पास पहुँचा। मैंने उसे कसकर पकड़ा और तैरते हुए उसे वापस किनारे की ओर खींचने लगा। तब तक हमारे अध्यापक और बाकी छात्र भी वहाँ पहुँच चुके थे। वे मेरा हौसला बढ़ाने लगे। मैं उस छात्र को किनारे पर ले आया। उसके पेट में पानी भर चुका था। उसे निकाला। किस्मत से वह बच गया।
अध्यापकों ने मेरी तुरंत बुद्धि की काफी तारीफ की। सबकी साँस में साँस आई। मुझे खुशी थी कि मैंने अपनी ही कक्षा के एक सहपाठी की जान बचाई। अगले दिन समाचार पत्रों में मेरे साहस के बारे में खबर छपी थी। हमारे प्राचार्य ने वार्षिक समारोह में मुझे पारितोषिक देकर पुरस्कृत किया। मैं अपने जीवन की इस अविस्मरणीय घटना को कभी भूल नहीं सकता।
23) समाज सेवा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग नहीं रहना चाहता। मनुष्य की प्रत्येक इकाइयाँ मिलकर ही समाज का निर्माण करती हैं। समाज में मनुष्य एक – दूसरे पर आश्रित है। इसीलिए समाज – सेवा की भावना मानव के हृदय में उच्चतम भावना है। सेवा की यह भावना मनुष्य मात्र की उन्नति के लिए आवश्यक है।
नवयुवक समाज के सुदृढ़ अंग हैं। अतः समाज – सेवा द्वारा समाज को उन्नत बनाने का सबसे बड़ा दायित्व हमारे नवयुवक पर है। खेद है कि आज पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में फँसकर हमारे देश के नवयुवक, नवयुवतियाँ आमोद – प्रमोद में लीन रहकर समाज – सेवा से विमुख हो रहे हैं। हमारे कॉलेज के विद्यार्थियों को आज की शिक्षा ने इससे बहुत दूर फेंक दिया है। वे परिश्रम से भागते हैं। शरीर की सजावट के सामने उनके पास अपने जर्जर समाज तथा दीन – दुखी भाइयों को देखने का अवकाश नहीं है। शिक्षित नवयुवक आज खेतों में काम करना अपमान समझते हैं। यही कारण है कि हमारे पास ईश्वर प्रदत्त उपजाऊ भूमि और जलपूर्ण नदियाँ तथा मनुष्यकृत अनेक साधन होने पर भी हम दाने – दाने के लिए दूसरों के मुहताज हैं।
हमारा देश गाँवों में बसता है। गाँवों में शिक्षा और स्वच्छता का अभाव है। अशिक्षित और गन्दे होने के कारण गाँवों का घोर पतन हो गया है। समाज – सेवी भाइयों को चाहिए कि वे गाँवों को अपना मुख्य कार्यक्षेत्र बनाएँ और मजदूरों, किसानों तथा अन्य ग्रामवासियों को शिक्षित बनाकर उन्हें स्वच्छता का पाठ पढ़ायें। इस प्रकार हमारा ग्रामीण समाज शीघ्र ही उन्नत होकर सुखी बन जायेगा।
आज देश में अनेक प्रकार के रोग फैले हुए हैं। दीन जनता के पास रोगों से बचने के लिए न कोई उपाय है और न उनकी चिकित्सा के लिए पैसे। लाखों असहाय दरिद्र लोग रोगवश अकाल में ही काल – क्वलित हो जाते हैं। हमारे वैद्य और डाक्टरों का कर्तव्य है कि वे निःस्वार्थ और त्याग भावना से निर्धन रोगियों की सेवा करें और उन्हें अकाल – मृत्यु से बचाकर जीवन प्रदान करें। रोगी की औषधि और परिचर्या निःशुल्क होनी चाहिए। इस भाँति स्वस्थ जीवन प्राप्त करके समाज अपनी अभीष्ट उन्नति कर सकेगा।
हमारे समाज का नैतिक पतन हो गया है। चारों ओर भ्रष्टाचार, चोर – बाजारी, रिश्वत तथा धोखेबाजी फैली हुई है। इसलिए समाज – सेवकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने चरित्र – बल से समाज की विनाशकारी तथा अनैतिकता की जड़ को उखाड़कर दूर फेंक दें। समाज का तभी उद्धार होगा।
समाज में अन्धविश्वास और छुआछूत का भी बोलबाला है। भाग्यवाद ने समाज को आलसी और अकर्मण्य बना दिया है। जादू – टोना, भूत – प्रेत, मन्त्र – तन्त्र आदि ने उसको सहज बुद्धि पर पर्दा डाल दिया है। ऊँच – नीच के विचार ने परस्पर घृणा का बीज बो दिया है। समाज – सेवकों को इन घृणित तत्वों को हृदय से निकाल कर उनमें सद्भावों की प्रतिष्ठा करनी है।
समाज की उन्नति के लिए स्त्री – जाति की संकीर्णताएँ दूर करनी अत्यावश्यक है। बिना स्त्रियों की उन्नति के समाज की उन्नति अधूरी है। स्त्रियाँ ही चरित्रवान् नागरिकों की जननी है। वास्तव में इनकी ही उन्नति पर समाज की उन्नति निर्भर है। आज समाज में स्त्रियों का अपना स्थान है। उन्हें उचित स्थान देना होगा।
भारत हमेशा से समाज – सेवा में अग्रणी रहा है। उसने सबसे पहले ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उच्च सिद्धान्त बनाकर विश्व – बन्धुत्व का दिव्य सन्देश दिया है। आज हम इसी उच्च सिद्धान्त को अपनाकर समाज तथा राष्ट्र की उन्नति कर सकते हैं।
24) देशाटन
देशाटन का अर्थ है देश में भ्रमण करना, घूमना। घर बसाना मानव के लिए जरूरी है। लेकिन घर की चार दीवारों में बंद रहना अहितकर है। मानव ज्ञान – पिपासु होता है। पुस्तकें, समाचार पत्र, रेडियों, दूरदर्शन, कम्प्यूटर आदि मानव के ज्ञान को विस्तृत करते हैं, मगर देशाटन एक ऐसा साधन है जो मानव के ज्ञान की परिधि को बहुत विस्तृत करता है। अतः देशाटन ज्ञानार्जन का प्रमुख साधन कहा जाता है।
प्रत्येक मनुष्य में दूसरे व्यक्तियों तथा स्थानों के प्रति सहज उत्सुकता होती है। इस उत्सुकता की पूर्ति के लिए मनुष्य विभिन्न देशों की यात्रा करता है। कुछ लोग व्यापारिक कार्यों के सिलसिले में दूसरे देशों में जाते हैं और अपना कार्य करने चले जाते हैं। कुछ लोग धर्म – प्रचार के लिए जाते हैं और अपना कार्य करते हैं। कुछ लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से यात्रा करते हैं। इस प्रकार अनेक कारण हैं। उनमें देशाटन भी एक है। आज के वैज्ञानिक और अर्थवादी युग में देशाटन का अपना एक विशेष महत्व है।
पुस्तकीय ज्ञान अधूरा और अप्रत्यक्ष होता है। जब कि देशाटन के द्वारा हमारे ज्ञान का समग्र रूप होता है। इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि विषय बहुत ही गहन होते हैं। अगर हम उन प्रदेशों की यात्रा करते हैं तो हमारे कई संदेहों का निवारण होता है। किसी भी प्रांत या देश की जानकारी पुस्तकों में पढ़ने के बजाय वहाँ की यात्रा करके अनुभव के द्वारा अच्छी तरह जाना जा सकता है।
एक ही जगह में रहनेवाला मनुष्य कूपमंडूक की तरह होता है। वह संकुचितता के दायरे में बंधा रहता है। जब कि भिन्न – भिन्न प्रांतों की यात्रा करनेवाला मनुष्य उदार और सहृदयी होता है। हम अपने ही प्रांत में रहते हैं तो दूसरे प्रांत की संस्कृति से बिलकुल अपरिचित रह जाते हैं। देशाटन लोगों को एकता के सूत्र में बाँध देता है।
देशाटन जीवन की संकीर्ण भावना को दूर कर लोगों के मन में उल्लास और उत्साह का संचार करता है। लोगों को उत्साहित करके कार्योन्मुख करता है।
शिक्षा प्रणाली में देशाटन को एक अविभाज्य अंग होना चाहिए। देशाटन को निरूदेश्य न मानकर विज्ञान – यात्रा मानना चाहिए। देश की सर्वतोमुखी उन्नति के लिए देशाटन बहुत ही जरूरी है। इसलिए हर देश विभिन्न प्रकार की प्रतिनिधि – मंडलियों के द्वारा देशाटन की योजनाएँ बनाता हैं। देशाटन व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, राष्ट्रीय जीवन में भी विज्ञान की वृद्धि में, स्नेह संपर्क की प्रगति में और बहुआयामी उन्नति में सहायक सिद्ध होता है।
व्यवसायी वर्ग को देशाटन से आर्थिक लाभ होता है। कृषिकों के लिए भी देशाटन से अनेक लाभ होते हैं। वे भी देशाटन के ज्ञान से अपनी कृषि में सुधार करके अपनी स्थिति सुधारने का प्रयत्न कर सकते हैं। भारतीय पद्धति में देशाटन अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष सभी फलों का टौता है। परमेश्वर की सौंदर्य सृष्टि में अनेक विचित्रतायें हैं और इनका ज्ञान देशाटन द्वारा प्राप्त हो सकता है। इसलिए देशाटन जीवन का धर्म है। इसके बिना जीवन की सर्वांगीण उन्नति संभव नहीं है।
25) व्यायाम का महत्त्व
मानसिक सुख को प्राप्त करने का मुख्य साधन शारीरिक स्वास्थ्य है। मानव जीवन में स्वास्थ्य ही सर्वस्व हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए लोग अनेक उपाय करते हैं पर उनमें सबसे अधिक सरल और सुगम उपाय व्यायाम है। जीवन व्यायाम के बिना कभी स्फूर्तिमय नहीं रहता। इसलिए व्यायाम मानव जीवन के लिए अत्यधिक आवश्यक है।
शारीरिक अंगों द्वारा समुचित ढंग से परिश्रम करने को व्यायाम कहते हैं। व्यायाम के विभिन्न भेद हैं। भिन्न – भिन्न प्रकार के आसन, दण्ड – बैठक, खुले मैदान में दौड़ना, घूमना, प्राणायाम करना, कुश्ती लड़ना, तैरना, हॉकी, फुटबाल, वालीबाल, क्रिकेट, टेनिस, कबड्डी, बेडमिन्टन खेलना आदि सभी को व्यायाम के अन्तर्गत रख सकते हैं। इन व्यायामों में शरीर के विभिन्न अंगों से समुचित काम लिया जाता है जिससे मांस – पेशियों में बल आता है और उनका विकास समुचित तरीके से होता है। हड्डियों में मजबूती आती है तथा परिश्रम करने से पसीना अधिक निकलता है जिससे रक्त का संचार ठीक ढंग से होता है और वह साफ हो जाता है।
मानव – जीवन में व्यायाम का विशेष स्थान है। जिस प्रकार रेल के इंजन को चलाने के लिए कोयले और पानी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार शरीर को क्रियाशील बनाये रखने के लिए व्यायाम रूपी कोयले की आवश्यकता होती है। व्यायाम से सारा शरीर सुडौल, सुगठित एवं दृढ़ बन जाता है। रक्त संचार ठीक तरह तथा तीव्र गति से होता है। हृदय की गति में वेग पैदा हो जाता है तथा पाचक शक्ति भी अपना कार्य ठीक तरह से करती है। सभी इन्द्रियाँ ठीक तरह से अपना कार्य करती रहती हैं। हृदय में उत्साह, आत्म – विश्वास तथा निडरता रहती है। मन भी कभी अप्रसन्न नहीं होता। रोग तो व्यायामशील व्यक्ति के पास फटक ही नहीं सकते।।
व्यायाम का सबसे अधिक प्रभाव व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ता है। व्यायाम द्वारा मस्तिष्क का विकास होता है। अंग्रेजी में कहावत है – ‘Healthy mind in a healthy body’ अर्थात् स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क होता है। व्यायाम द्वारा शरीर में एक अनुपम स्फूर्ति का श्रोत बहने लगता है।
आज के वैज्ञानिक युग में व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। व्यायाम के लिए खुली हवा और खुली जगह आवश्यक होती है ताकि श्वास लेने के लिए स्वच्छ वायु मिल सके। शरीर के लिए व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। जीवन में अधिक समय तक सुखी और निरोग रहने का एक मात्र साधन व्यायाम ही है।
26) समय का सदुपयोग
मनुष्य जीवन में समय का बड़ा महत्व है। जो समय का सदुपयोग करता है, वह जीवन में सफल होता है और जो समय का दुरुपयोग करता है, वह असफल होता है। समय अबाध गति से बढ़ता जाता है। जिसने समय के महत्व को जान लिया, उसने जीवन के रहस्य को जान लिया। समय का सदुपयोग करने से साधारण व्यक्ति भी महान बन जाता है।
समय बड़ा मूल्यवान है। अतः इसका हम जितना उपयोग करेंगे, उतना ही हमें लाभ होगा। जीवन का प्रत्येक क्षण हमारे भाग्य – निर्माता के रूप में हमारे समक्ष आता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हैं।
समय का सदुपयोग करनेवाले पठन – पाठन, खेल, व्यायाम, सामाजिक उत्सव, मनोरंजन, चिन्तन – मनन सबके लिए समय निकाल पाते हैं। वे अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का आनंद लेते हैं। जिस देश का प्रत्येक नागरिक समय का सदुपयोग करता है, वही राष्ट्र तरक्की कर सकता है। जापान इसका जीता – जागता उदाहरण है।
समय का दुरुपयोग करनेवाले सदा जीवन में विफल होते हैं। वे अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। बीते समय की याद में अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं। समय बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं है। समय को बरबाद करनेवाले अपने, समाज का और राष्ट्र का अहित ही करते हैं। समय का दुरुपयोग मनुष्य को कायर तथा अकर्मण्य बना देता है।
विद्यार्थी जीवन में समय के सदुपयोग की अति आवश्यकता है। समय का पालन करनेवाले छात्र सदा प्रसन्न चित्त रहते हैं। मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। अतः समय रहते उसे कुछ – न – कुछ करते रहना चाहिए। समय का इस प्रकार उपयोग करना चाहिए कि बीते समय पर हमें पछताना न पड़े, बल्कि बीता समय हमारे लिए सुनहरा अवसर लाए।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगा, बहुरी करोगे कब।।
– कबीर
27) स्वावलम्बन
‘स्वावलंबन’ में दो शब्द हैं – ‘स्व’ और ‘आलंबन’। ‘स्व’ का अर्थ है – अपना और ‘आलंबन’ का अर्थ है – सहारा। इस प्रकार स्वावलंबन का अर्थ है अपना सहारा स्वयं बनना। दूसरे शब्दों में, अपने आत्मबल को जागृत करना ही ‘स्वावलंबन’ कहलाता है।
स्वावलंबी व्यक्ति के सामने असंभव कार्य भी संभव दिखने लगता है। स्वावलंबन के दो पहलू हैं – पहला, आत्म निश्चय और दूसरा, आत्म निर्भरता। इसके ठीक विपरीत छोटे – छोटे कार्यों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना ‘परावलंबन’ कहलाता है। परावलंबी व्यक्ति हाथ रहते हुए भी लूला और पैर रहते हुए भी लंगड़ा रहता है। जिसमें अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य नहीं है, वह दूसरों का कंधा पकड़कर कब तक चलता रहेगा? एक झटका लगते ही धराशायी हो जाएगा। ईश्वर उसी की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं।
विश्व का इतिहास ऐसे महापुरुषों के उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिन्होंने स्वावलंबन का सहारा लिया है। महाकवि तुलसीदास बचपन से ही अनाथ थे। वे दाने – दाने के लिए मुहताज रहते थे, फिर भी अपनी आत्मनिर्भरता के सहारे वे स्वतंत्र लेखन करके भारत के लोककवि कहलाए।
ईश्वरचंद विद्यासागर एक निर्धन परिवार की संतान थे। वे सड़क की रोशनी में पढ़ते थे। उन्होंने जो यश अर्जित किया, उसका आधार स्वावलंबन ही था। अब्राहम लिंकन जूते की सिलाई करते थे, लेकिन अपनी आत्मनिर्भरता और अपने आत्मनिश्चय को जगाकर एक दिन वे अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति पद पर जा बैठे। इसी तरह छत्रपति शिवाजी, न्यूटन, अकबर, नेपोलियन, शेरशाह तथा महात्मा गांधी इत्यादि अनगिनत नाम हैं।
इस प्रकार स्वावलंबन ही जीवन है और परावलंबन मृत्यु। स्वावलंबन पुण्य है और परावलंबन पाप। अतः हर माता – पिता को चाहिए कि वह बचपन से ही अपने बच्चों में स्वावलंबन की भावना भरें। छात्रों को अपने छोटे – छोटे कार्य – कमरे की सफाई, वस्त्रों की धुलाई, भोजन बनाना आदि स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए। ऐसे विद्यार्थी स्वावलंबी बनकर देश के योग्य नागरिक बनते हैं और उनके सहयोग से स्वावलंबी राष्ट्र का निर्माण होता है।
28) सहशिक्षा
सहशिक्षा का अर्थ है एक कक्षा में, एक कमरे में छात्रों और छात्राओं की एक साथ पढ़ाई। भारत में सदा इसका विरोध किया जाता था और यह व्यवस्था थी कि बालक और बालिकाओं के गुरुकुल अलग – अलग और एक दूसरे से दूर हों। आजकल सहशिक्षा का विरोध क्रमशः शिथिल होता जा रहा है। सहशिक्षा के समर्थक बहुत प्रकांड विद्वान, उन्नत और प्रगति – शील हैं। वे कहते हैं कि सह – शिक्षा से देश को अनेक लाभ हैं जिनकी उपेक्षा करना आज हानिकारक होगा।
सह – शिक्षा से राष्ट्र के धन का अव्यय नहीं होगा। एक साथ लड़कों व लड़कियों के पढ़ने से अध्यापक वर्ग, भवन, फर्नीचर, पुस्तकालय तथा व्यवस्था आदि पर दोहरा व्यय नहीं करना होगा। आज जब कि योग्य शिक्षित अध्यपकों का अभाव है, और यह भी अत्यंत आवश्यक है कि दोनों एक योग्य अध्यापक से पढ़ लिया करें। इस तरह विद्यालयों की ईमारतें भी अलग – अलग नहीं बनानी पड़ेंगी।
लड़कों व लड़कियों के एक साथ पढ़ने और अधिक परिचय से उनमें एक दूसरे के प्रति मिथ्या आकर्षण कम हो जाएगा। अपरिचित व अज्ञात रहस्य के प्रति आकर्षण अधिक होता है। एक दूसरे के साथ अधिक समय व्यतीत करने से नवीनता, कोतूहलता और रहस्यमयता कम हो जाएगी, वातावरण सहज नैतिक हो जाएगा।
दोनों के एक साथ रहने से लड़कों की उच्छंखलता कम हो जाएगी। वे लडकियों से शालीनता, नम्रता आदि गुण सीखेंगे। लड़कियाँ लड़कों से पौरुष व साहस आदि गुण सीखेंगी।
आज नारी भी राष्ट्र की समान नागरिक है। नागरिकता के सब गुणों का विकास सह – शिक्षा से ही नारी में हो सकेगा।
शिक्षा का संबंध मानव जीवन से है। यदि शिक्षा जीवन के उपयोग में नहीं आई तो वह व्यर्थ है। शिक्षण काल में विद्यार्थी या विद्यार्थिनी को इन गुणों का विकास करना चाहिए जो उसके भावी जीवन में उपयोगी हों। यदि स्त्री और पुरुषों का कार्यक्षेत्र एक है, उन दोनों को एक समान सार्वजनिक कार्य करने हैं, एक समान सरकारी या व्यापारिक दफ्तरों में नौकरी करनी है, एक समान धन उपार्जन करना है तब सहशिक्षा का विरोध नहीं किया जा सकता। अगर नर और नारी को अलग – अलग क्षेत्रों में काम करना है दोनों के लिए भिन्न गुणों की आवश्यकता है।
सहशिक्षा अपने में ही सुंदर प्रणाली है। इसका वातावरण बुरा या अच्छा हमारे छात्र – छात्रायें ही बनाते हैं। यदि हमारे छात्र – छात्राओं में परस्पर सद्भावना होगी तो निश्चय ही सहशिक्षा सफलता की चरम सीमा को प्राप्त कर सकती है। यह तो विद्यार्थियों का विषय है। अच्छा वातावरण उन्हीं के लिए लाभदायक है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की मानसिक और नैतिक शक्तियों का विकास है। सहशिक्षा इसकी कसौटी है। छात्र और छात्राओं की विजय इसी में है कि वे इस कसौटी पर खरे उतरें।
29) इंटरनेट की दुनिया
इंटरनेट दुनिया भर में फैले कम्प्यूटरों का एक विशाल संजाल है जिसमें ज्ञान एवं सूचनाएं भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए अनवरत प्रवाहित होती रहती हैं।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सियोनार्ड क्लिनरॉक को इन्टरनेट का जन्मदाता माना जाता है। इन्टरनेट की स्थापना के पीछे उद्देश्य यह था कि परमाणु हमले की स्थिति में संचार के एक जीवंत नेटवर्क को बनाए रखा जाए। लेकिन जल्द ही रक्षा अनुसंधान प्रयोगशाला से हटकर इसका प्रयोग व्यावसायिक आधार पर होने लगा। फिर इन्टरनेट के व्यापक स्तर पर उपयोग की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त हुआ और अपना धन लगाना प्रारम्भ कर दिया।
1992 ई. के बाद इन्टरनेट पर ध्वनि एवं वीडियो का आदान – प्रदान संभव हो गया। अपनी कुछ दशकों की यात्रा में ही इन्टरनेट ने आज विकास की कल्पनातीत दूरी तय कर ली है। आज के इन्टरनेट के संजाल में छोटे – छोटे व्यक्तिगत कम्प्यूटरों से लेकर मेनफ्रेम और सुपर कम्प्यूटर तक परस्पर सूचनाओं का आदान – प्रदान कर रहे हैं। आज जिसके पास भी अपना व्यक्तिगत कम्प्यूटर है वह इंटरनेट से जुड़ने की आकांक्षा रखता है।
इन्टरनेट आधुनिक विश्व के सूचना विस्फोट की क्रांति का आधार है। इन्टरनेट के ताने – बाने में आज पूरी दुनिया है। दुनिया में जो कुछ भी घटित होता है और नया होता है वह हर शहर में तत्काल पहँच जाता है। इन्टरनेट आधुनिक सदी का ऐसा ताना – बना है, जो अपनी स्वच्छन्द गति से पूरी दुनिया को अपने आगोश में लेता जा रहा है। कोई सीमा इसे रोक नहीं सकती। यह एक ऐसा तंत्र है, जिस पर किसी एक संस्था या व्यक्ति या देश का अधिकार नहीं है बल्कि सेवा प्रदाताओं और उपभोक्ताओं की सामूहिक सम्पत्ति है। इन्टरनेट सभी संचार माध्यमों का समन्वित एक नया रूप है। पत्र – पत्रिका, रेडियो और टेलीविजन ने सूचनाओं के आदान – प्रदान के रूप में जिस सूचना क्रांति का प्रवर्तन किया था, आज इन्टरनेट के विकास के कारण वह विस्फोट की स्थिति में है। इन्टरनेट के माध्यम से सूचनाओं का आदान – प्रदान एवं संवाद आज दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पलक झपकते संभव हो चुका है।
इन्टरनेट पर आज पत्र – पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, रेडियों के चैनल उपलब्ध हैं और टेलीविजन के लगभग सभी चैनल भी मौजूद हैं। इन्टरनेट से हमें व्यक्ति, संस्था, उत्पादों, शोध आंकड़ों आदि के बारे में जानकारी मिल सकती है। इन्टरनेट के विश्वव्यापी जाल (www) पर सुगमता से अधिकतम सूचनाएं प्राप्त की जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त यदि अपने पास ऐसी कोई सूचना है जिसे हम सम्पूर्ण दुनिया में प्रसारित करना चाहें तो उसका हम घर बैठे इन्टरनेट के माध्यम से वैश्विक स्तर पर विज्ञापन कर सकते हैं। हम अपने और अपनी संस्था तथा उसकी गतिविधियों, विशेषताओं आदि के बारे में इन्टरनेट पर अपना होमपेज बनाकर छोड़ सकते हैं। इन्टरनेट पर पाठ्य सामग्री, प्रतिवेदन, लेख, कम्प्यूटर कार्यक्रम और प्रदर्शन आदि सभी कुछ कर सकते हैं। दूरवर्ती शिक्षा की इन्टरनेट पर असीम संभावनाएं हैं।
इन्टरनेट की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी अहम् भूमिका है। विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण एवं जनमत संग्रह इन्टरनेट के द्वारा भली – भांति हो सकते हैं। आज सरकार को जन – जन तक पहुंचने के लिए ई – गवर्नेस की चर्चा हो रही है। व्यापार के क्षेत्र में इन्टरनेट के कारण नई संभावनाओं के द्वार खुले हैं। आज दुनिया भर में अपने उत्पादों और सेवाओं का विज्ञापन एवं संचालन अत्यंत कम मूल्य पर इन्टरनेट द्वारा संभव हुआ है। आज इसी संदर्भ में वाणिज्य के एक नए आयाम ई – कॉमर्स की चर्चा चल रही है। इन्टरनेट सूचना, शिक्षा और मनोरंजन की त्रिवेणी है। यह एक अन्तःक्रिया का बेहतर और सर्वाधिक सस्ता माध्यम है। आज इन्टरनेट कल्पना से परे के संसार को धरती पर साकार करने में सक्षम हो रहा है। जो बातें हम पुराण और मिथकों में सुनते थे और उसे .. अविश्वसनीय और हास्यास्पद समझते थे वे सभी आज इन्टरनेट की दुनिया में सच होते दिख रहे हैं। टेली मेडिसीन एवं टेली ऑपरेशन आदि इन्टरनेट के द्वारा ही संभव हो सके हैं।
30) मनोरंजन के आधुनिक साधन
मनुष्य मनोरंजन – प्रिय है। यदि मनोरंजन नहीं होता, तो मनुष्य अपने जीवन के प्रति उदासीन हो जाता। वह एकाकी, निराश एवं उद्विग्न होकर इधर – उधर भटकता फिरता। यही कारण है कि उसने अपने मन को बहलाने के लिए कई मनोरंजन के साधन बना लिए।
ऊबे हुए मन को आनंदित करना या प्रफुल्लित करना ही मनोरंजन है। यदि मन प्रसन्न होगा, तो हम हर कार्य में दिलचस्पी के साथ मग्न हो सकते हैं। यही ध्यान में रखकर मनुष्य ने अनेक साधनों का उपयोग किया। चाहे वे खेल – कूद हो सकते हैं, तीज – त्योहार हो सकते हैं, विभिन्न प्रकार की स्पर्धाएँ हो सकती हैं, गाना – बजाना, नाच, अभिनय आदि मनोरंजन के साधन हो सकते हैं।
प्राचीन काल में भी मनोरंजन के कई साधन थे। कई प्रकार के देशी खेलों द्वारा लोग मनोरंजन करते थे। त्योहारों के माध्यम से भी कई मनोरंजन होते थे। नाच – गाना और रंगमंच पर अभिनय द्वारा खास तौर से मनोरंजन करते थे। कृष्ण – लीला, राम – लीला तथा ख्याल आदि उन दिनों मनोरंजन के खास साधन थे।
आधुनिक काल में तो मनोरंजन की बाढ़ – सी आ गई है। चलचित्र, रेडियो, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, मोबाइल, नाटकाभिनय आदि तो हैं ही। साथ – साथ हॉकी, क्रिकेट, वॉलीबाल, बैडमिंटन, कबड्डी, खोखो आदि अनेक खेलों से मनोरंजन किया जाता है। आज घर – घर में, यहाँ तक कि सुदूर गाँवों की झोंपड़ियों में भी ये मनोरंजन के साधन पहुँच गये हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन साधनों का सम्बन्ध प्राचीन काल से आज – तक मानव से जुड़ा हुआ है। मानव मन अपनी सुविधानुसार इन साधनों का उपयोग करके, मनोरंजन कर रहा है, जो आज के समय की माँग है।
अतिरिक्त प्रश्न :
31) स्वच्छता अभियान
महात्मा गांधी ने अपने आसपास के लोगों को स्वच्छता बनाए रखने संबंधी शिक्षा प्रदान कर राष्ट्र को एक उत्कृष्ट संदेश दिया था। उन्होंने ‘स्वच्छ भारत’ का सपना देखा था। वे चाहते थे कि भारत के सभी नागरिक एक साथ मिलकर देश को स्वच्छ बनाने के लिए कार्य करें। महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के स्वप्न को पूरा करने के लिए, प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया और इसकी सफलता के लिए भारत के सभी नागरिकों को इससे जुड़ने की अपील की।
इस अभियान का उद्देश्य अगले पांच वर्ष में स्वच्छ भारत का लक्ष्य प्राप्त करना है ताकि बापू की 150वीं जयंती को इस लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। स्वच्छ भारत अभियान सफाई करने की दिशा में प्रतिवर्ष 100 घंटे के श्रमदान के लिए लोगों को प्रेरित करता है।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत ग्रामीण इलाकों में ग्रामीण विकास मंत्रालय हर गांव को अगले पांच सालों तक हर साल 20 लाख रुपये देगा। सरकार ने हर परिवार में व्यक्तिगत शौचालय की लागत 12,000 रुपये तय की है।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाने और 4,041 कस्बों के 1.04 करोड़ घरों को इसमे शामिल करने का लक्ष्य है।
स्वच्छ भारत अभियान का उद्देश्य केवल आसपास की सफाई करना ही नहीं है अपितु नागरिकों की सहभागिता से अधिक – से – अधिक पेड़ लगाना, कचरा मुक्त वातावरण बनाना, शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराकर एक स्वच्छ भारत का निर्माण करना है। देश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत का निर्माण करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अस्वच्छ भारत की तस्वीरें भारतीयों के लिए अक्सर शर्मिंदगी की वजह बन जाती है। इसलिए स्वच्छ भारत के निर्माण एवं देश की छवि सुधारने का यह समय और अवसर है। यह अभियान न केवल नागरिकों को स्वच्छता संबंधी आढ़तें अपनाने बल्कि हमारे देश की छवि स्वच्छता के लिए तत्परता से काम कर रहे देश के रूप में बना में भी मदद करेगा।
32) निरक्षरता एक कलंक
स्वतत्रता प्राप्ति के पैंसठ साल गुजर जाने के बाद भी भारत में करोड़ों की संख्या में ऐसे भारतीय मिल जायेंगे जिनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। निरक्षरता बहुत बड़ा अभिशाप है। निरक्षरता के कारण जब तक प्रजा अपने प्रतिनिधि को चुनने में गलती करती है तथा मत का महत्व नहीं समझती, तब तक लोकतंत्र की मूल आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है। निरक्षरता के कारण भोले ग्रामीण लोग निरंतर ठगे जाते हैं। ऐसे लोगों को लोकतंत्र क्या लाभ पहुंचा सकता है?
साक्षरता आन्दोलन : शिक्षा के प्रति निरक्षरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए साक्षरता आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था। ‘अंगूठा लगाना पाप है’ तथा ‘अशिक्षा का नाश हो’ जैसे नारे गाँव – गाँव में गूंजने लगे है। साक्षरता आन्दोलन के अन्तर्गत रात्रि पाठशालाएँ खोली गयी है तथा प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों एवं रात्रि पाठशालाओं में निःशुल्क शिक्षा देकर अनपढ़ प्रौढ़ों को साक्षर बनाने का कार्य हुआ है।
निरक्षरता की स्थिति : वर्तमान में भारत में 15 वर्ष से 35 वर्ष की श्रेणी में आने वाले लगभग 10 करोड़ व्यक्ति निरक्षर है। यह लोग अपना नाम लिखने और पढ़ने में भी असमर्थ है। यह आँकड़ा विचारणीय ही नहीं हमारे लिए लज्जा का भी विषय होना चाहिए। हम एक सफल और विशाल लोकतंत्र में रहने पर गर्व करते हैं। परन्तु निरक्षरता के आधार पर स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती।
निरक्षरता की समस्या को देश की सांस्कृतिक समस्या समझा जाये और इसको हमारी परंपरा और संस्कृति की विरासत के साथ जोड़ा जाना चाहिए। तात्पर्य यह कि साक्षरता अभियान को मिशनरी भावना से चलाया जाना चाहिए।
निरक्षरता रूपी कलंक को दूर करने के सरकारी प्रयासों के बावजूद भी इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जन जन तक शिक्षा को पहुँचाने के लिए एवं निरक्षरता को मिटाने के लिए हमारा मूलमंत्र होना चाहिये –
“जब तक है निरक्षर इंसान
नहीं रुकेगा यह अभियान ॥”
33) आपका प्रिय कवि
हिन्दी साहित्य अनेक श्रेष्ठ कवियों का भंडार है। मुझे श्री मैथिलीशरण गुप्त का जीवन और काव्य विशेष रूप से पसंद है। गुप्तजी की राष्ट्रीयता, देशभक्ति की भावना और भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम मुझे सदा उनके काव्य की ओर आकर्षित करते रहे हैं। जब से मैने कविता को समझना सीखा है, तभी से गुप्तजी की सरल और आकर्षक रचनाएँ मेरे मन में विशेष प्रकार के उत्साह का संचार करती रहती हैं।
इस मर्यादावादी कवि का जन्म झांसी के नजदीक चिरंगाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीरामचरण गुप्त था। पिताजी से कवित्व की प्रेरणा उन्होंने प्राप्त की। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में वे कविता के पथ पर अग्रसर हुए।
श्री मैथिलीशरण गुप्त जी हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि कवि माने गये हैं। जनता ने उन्हें राष्ट्रकवि कहकर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया है। उन्होंने मुख्य रूप से कविताएँ ही लिखी हैं। पचास से भी अधिक काव्य ग्रंथ लिखकर उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है।
खड़ीबोली के सबसे अधिक सफल कवि माने जाते हैं। आपका उद्देश्य राष्ट्रीय तथा समाज कल्याण है। इसलिए उनका प्रत्येक ग्रंथ सोद्देश्य है। वे समाज के हर क्षेत्र में मर्यादावादी थे। इसीलिए उन्होंने मर्यादावादी राम को अपना आराध्य पसंद किया है। समाज सेवा, राष्ट्रसेवा और मानव सेवा उनके काव्य का प्रमुख ध्येय रहा है।
‘भारत – भारती’ इनकी सर्वप्रथम लोक प्रिय रचना है। यह तो सीधे – सादे शब्दों में भारत की पुकार है। इस ग्रंथ में भारत का गौरव – गान हैं।
‘जयद्रथवध’ महाभारत पर अवलंबित है तो ‘पंचवटी’ रामायण पर। ‘यशोधरा’ तो गौतम बुद्ध की जीवनी है। ‘साकेत’ में उर्मिला का वर्णन है। ‘शकुंतला’ में शकुंतला और दुष्यंत की कहानी है। इन सभी ग्रंथों में गांधीवाद है। अहिंसा का महत्व है। युद्ध – विरोधी भावनाएँ हैं।
उपेक्षित पात्रों को ऊपर उठाने में गुप्तजी सिद्धहस्त हैं। ‘उर्मिला’, ‘यशोधरा’ काव्य इसके लिए उदाहरण हैं। नारी के प्रति कवि की भावनाएँ अत्यंत हृदय – स्पर्शी है।
गुप्तजी की भाषा आधुनिक खड़ीबोली है। संस्कृत के तत्सम तद्भव शब्दों का बाहुल्य है। कहा जाता है मैथिलीशरण गुप्त ने आधुनिक हिन्दी की प्राण प्रतिष्ठा की।
गुप्तजी की रचनाओं में से मुझे ‘यशोधरा’ और ‘भारत – भारती’ विशेष रूप से प्रिय लगते हैं। ‘यशोधरा’ इसलिए कि उसमें नारी की मूकवेदना है और गौतम बुद्ध का शांतिदायक संदेश है तथा ‘भारत – भारती’ इसलिए कि उससे मुझे विशेष उत्साह मिलता है।
गुप्तजी विनयशाली थे। नए – नए कवियों को स्फूर्ति और प्रेरणा देते थे। सभी युवा कवियों से दिल खोलकर बातें करते थे। घमंड उन्हें छू तक नहीं गया था। सादा जीवन और उच्च विचार करनेवाले व्यक्ति थे।
आजकल गुप्तजी हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके अमर – ग्रंथ हैं। जब तक भारतवर्ष रहेगा तब तक गुप्तजी का नाम अमर रहेगा।
34) अन्तरिक्ष विज्ञान और भारत
पृत्वी से सौ किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष की सीमा आरंभ होती है। प्राचीन काल से ही मानव विभिन्न ग्रहों और अंतरिक्ष के रहस्य समझने या उसके संबंध में अधिक – से – अधिक जानकारी रखने की इच्छा रखता आया है। विभिन्न ग्रह कैसे हैं? उनका धरातल कैसा है? क्या वहाँ कोई जीव हैं या नहीं? इन रहस्यों की खोज के प्रयास पिछली शताब्दी के मध्य से प्रारंभ हो गए थे।
4 अक्तूबर 1957 को सोवियत संघ ने स्पूतनिक नामक एक कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा था जो धरती का पहला कृत्रिम उपग्रह था। मनुष्य का अंतरिक्ष में प्रवेश 12 अप्रैल 1961 को हुआ, जब पहली बार यूरी गागरिन अंतरिक्ष में गए। पहली बार अप्रैल 1969 में मानव ने अपने कदम चांद की धरती पर रखें। वर्ष 1961 से आज तक पाँच सौ से अधिक वैज्ञानिक और शोधकर्ता अंतरिक्ष में जा चुके हैं।
भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान का कार्य सन 1959 में टाटा मूलभूत संस्थान, मुम्बई में प्रारम्भ हुआ था। अगस्त 1961 में भारत सरकार ने अंतरिक्ष अनुसंधान का कार्य परमाणु ऊर्जा विभाग को सौंपा। परमाणु ऊर्जा विभाग ने 1962 में इस कार्य के लिए डाक्टर विक्रम साराभाई की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति गठित की। इस समिति की देखरेख में भारत का अंतरिक्ष अनुसंधान का सूत्रपात हुआ। सबसे पहले त्रिवेन्द्रम से 16 किलोमीटर दूर धुंबा में थुम्बा भूमध्यरेखीय राकेट प्रक्षेपण केन्द्र की स्थापना 1963 में की गई। आगे कई वर्षों तक इस केन्द्र से राकेट प्रक्षेपित किये गये। नवम्बर 1969 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम बनाया गया तथा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का गठन हुआ। उनमें से किसी को भी अपने लक्ष्य में सफलता नहीं मिली। प्रथम रोहिणी राकेट का सफल प्रक्षेपण 1970 में सम्भव हुआ। इसके बाद उपग्रह तैयार करने की योजना बनी।
धुंबा में मिली सफलता के बाद समिति ने मद्रास से 100 किलोमीटर उत्तर में पूर्वी तट पर श्रीहरिकोटा नामक द्वीप पर उपग्रह प्रक्षेपण केन्द्र की स्थापना का कार्य अपने हाथ में लिया जो 1980 में बन कर पूरा हुआ।
भारत ने 10 मई 1975 को रूस से एक समझौता किया जिसमें यह व्यवस्था की गई कि भारत उपग्रह बनाएगा और सोवियत रूस उसे अंतरिक्ष में भेजेगा। इस योजना को कार्यान्वित करने का दायित्व विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक प्रोफेसर सतीश धवन को सौंपा गया। बेंगलोर के पास पीनिया में उपग्रह बनाने का कार्य आरम्भ हुआ। लगभग 5 करोड़ रुपये की लागत से पहला भारतीय उपग्रह तैयार किया गया। उसका नाम सुप्रसिद्ध भारतीय खगोलशास्त्री और गणितज्ञ के नाम पर ‘आर्यभट्ट’ रखा गया। 21 नवम्बर 1973 को भारत ने अपना पहला राकेट अंतरिक्ष के रहस्यों का पता लगाने के लिए धुंबा से छोड़ा था। 19 अप्रैल 1975 को ‘आर्यभट्ट’ का प्रक्षेपण किया गया।
आर्यभट्ट के प्रक्षेपण के बाद 7 जून 1979 को भारत ने अपना दूसरा भू – प्रक्षेपण उपग्रह ‘भास्कर’ सोवियत राकेट – लांचर द्वारा प्रक्षेपित किया। भास्कर का प्रक्षेपण वनों, जल – विज्ञान, बर्फ के आवरण, बर्फ पिघलने, भू – गर्भीय विज्ञान, भूमि – उपयोग और महासागरीय सतह के सम्बन्ध में प्रयोग करने के उद्देश्य से किया गया था। सन् 1979 तक भारत ने राकेट बनाने में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली और अपने उपग्रहों का प्रक्षेपण अपने बनाए राकेटों से करने लगा।
भारत ने ‘रोहिणी’ उपग्रह अपने ही प्रक्षेपण केन्द्र श्रीहरिकोटा से 18 जुलाई 1980 को अंतरिक्ष में प्रक्षिप्त किया। 1981 की 31 मई को दूसरे ‘रोहिणी’ उपग्रह का प्रक्षेपण किया गया। इसी वर्ष 19 जून को प्रथम परीक्षणात्मक भू – स्थिर – संचार उपग्रह ‘एप्पल’ का प्रक्षेपण फ्रांस के एरियन राकेट द्वारा किया गया। अगले वर्ष 20 नवम्बर को पृथ्वी के निरीक्षण के लिए भास्कर द्वितीय उपग्रह सोवियत रूस के प्रक्षेपण केन्द्र से छोड़ा गया। सन् 1983 में भारत को पहला बहुउद्देश्यीय उपग्रह ‘इनसेट’ अमेरिका से प्राप्त हुआ और उसे 10 अप्रैल को पृथ्वी की कक्ष में स्थापित किया गया।
अंतरिक्ष अनुसंधान के मार्ग पर भारत आगे बढ़ता गया और 19 मार्च 1988 को उसने अपने वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित पहला सुदूर – संवेदी उपग्रह आई.आर.एस. सोवियत रूस के राकेट द्वारा अंतरिक्ष में भेजा। उसी वर्ष 22 जुलाई को तीसरा बहुउद्देश्यीय उपग्रह इन्सेट – 10 फ्रेंच गुयान के प्रक्षेपण केन्द्र से छोड़कर पृथ्वी की कक्ष में स्थापित किया गया।
अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भारत को जबर्दस्त उपलब्धि उस समय हुई जब 15 अक्टूबर 1994 को उसने अपने दूसरे विकासपरक ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपक (पी.एस.एल.वी.डी. – 2) के श्रीहरिकोटा से सफल प्रक्षेपण की मदद से एक दूर संवेदी उपग्रह आई.आर.एस.पी. – 2 को कक्ष में पहुंचा दिया। इस प्रक्षेपण के बाद भारत उन इने – गिने देशों में शामिल हो गया जो एक हजार किलोग्राम वर्ग का उपग्रह छोड़ने की क्षमता रखते हैं।
सितम्बर 2004 में भू – स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी – एफ – 01) द्वारा प्रक्षेपित एडुसैट, भारत का पहला उपग्रह है, जो शिक्षा के लिए समर्पित है। एडुसैट, वन वे टीवी प्रसारण, इंटरएक्टिव टीवी, वीडियों कान्फ्रेन्सिंग, कम्प्यूटर कान्फ्रेन्सिंग, वेब आधारित इंस्ट्रक्शन आदि जैसे शिक्षा प्रदान करने वाले विकल्पों की व्यापक श्रृंखला उपलब्ध करा रहा है।
सितम्बर 2014 में भारत ने अपना अंतरिक्ष यान मंगल की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर इतिहास रचा दिया। यह उपलब्धि हासिल करने के बाद भारत दुनिया में पहला ऐसा देश बन गया, जिसने अपने पहले ही प्रयास में ऐसे अंतरग्रही अभियान में सफलता प्राप्त की है।
फरवरी 2017 में इसरो के प्रक्षेपण यान पीएसएलवी ने श्रीहरिकोटा से एक ही रॉकेट के माध्यम से रिकार्ड 104 उपग्रहों का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। इन 104 उपग्रहों में भारत के तीन और विदेशों के 101 सैटेलाइट शामिल थे। भारत ने एक रॉकेट में 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इस तरह का इतिहास रचने वाला पहला देश बन गया है।
भविष्य में अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं। विश्व के अन्य देशों की तरह भारत भी अंतरिक्ष अनुसंधानों की ओर अपना काम कर रहा है। उच्च प्रौद्योगिकी सम्पन्न देशों के बीच खड़े होने के लिए हमें अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों को अधिक सटीक बनाना जरूरी है।
35) भारतीय नारी
भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही नारी को विशेष महत्त्व दिया जाता रहा है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में नारी ‘गृह – लक्ष्मी’ तथा ‘गृह – स्वामिनी’ के नाम से सम्मानित की गई है। यह कहावत भी है कि ‘बिना गृहिणी गृह भूत का डेरा’ अर्थात् नारी ही घर की शोभा है।
वैदिक काल में नारी को समाज में जो महत्त्वपूर्ण स्थान मिला था उसका उदाहरण किसी और समाज में मिलना दुर्लभ है। वह सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में पुरुष के साथ मिलकर कार्य करती थी। रोमशा और लोपामुद्रा आदि अनेक नारियों ने ऋग्वेद के सूत्रों की रचना की थी। इस युग में नारी समस्त गतिविधियों के संचालन की केन्द्रीय शक्ति थी। इस युग में किसी भी कार्य में पति के साथ पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य थी। मनु ने प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श एवं महान रूप की व्यंजना करते हुए लिखा – “जहाँ पर स्त्रियों का पूजन होता है वहाँ देक्ता निवास करते हैं।
मध्य युग में जब देश पर मुगल आक्रमण हुए तथा देश पर उनका शासन चलने लगा। तभी से नारी जीवन की करुण गाथा आरम्भ हो गयी। मुगल शासकों ने देश में पर्दा – प्रथा को जन्म दिया और नारी को बन्दिनी बना दिया। मुगल शासन के पूर्व जो नारी समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती थी तथा सभी समारोहों में भाग लेती थी, उसका अस्तित्व केवल घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गया। वह किसी न किसी रूप में पुरुष पर आश्रित हो गयी। उसकी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया गया जिसके फलस्वरूप वह कन्या रूप में पिता पर, पत्नी के रूप में पति पर और माँ के रूप में पुत्र पर निरन्तर आश्रित होती चली गयी।
मध्य युग में नारी केवल पुरुष के लिए मनोरंजन का साधन मात्र थी। उसकी दृष्टि में उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं था। वह न तो कोई निर्णय ले सकती थी और न ही किसी सामाजिक समारोह में भाग ले सकती थी। किन्तु मुगल शासन के समाप्त होते – होते और समय बदलने के साथ भारतीय विचारकों एवं नेताओं का ध्यान नारी की इस दयनीय दशा की ओर गया और उन्होंने नारी की दशा सुधारने के लिए अनेक प्रयास किये।
अंग्रेजों के राज के स्थापित होने के साथ – साथ नारी की उन्नति पुनः प्रारम्भ हुई। अनेक बड़े – बड़े नेताओं ने नारी के भाग्य को पलटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिनमें राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी आदि वर्णन करने योग्य हैं। इस नव – चेतना के फलस्वरूप नारी को समान अधिकार मिला। शिक्षा – दीक्षा के प्रारम्भ तथा सती प्रथा के अन्त से उसकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर मिला।
आधुनिक युग में नारी को विलासिनी और अनुचरी के स्थान पर देवी, माँ, सहचरी और प्रेयसी के गौरवपूर्ण पद प्राप्त हुए। नारियों ने सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में आगे बढ़कर कार्य किया और कर रही हैं। विजयलक्ष्मी पण्डित, कमला नेहरू, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी, सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि के नाम लिये जा सकते हैं जिन्होंने देश के सम्मान को बढ़ाया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने हिन्दू विवाह और कानून में सुधार करके नारी को भी पुरुष के समान अधिकार प्रदान किये। दहेज विरोधी कानून बनाकर उसने नारी की स्थिति में और भी सुधार कर दिया। लेकिन पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करके नारी अपने आदर्श को तिलांजलि दे रही है। सामाजिक एवं आर्थिक स्वतन्त्रता ने उसे भोगवाद की ओर प्रेरित किया है। आधुनिकता के मोह में पड़कर वह आज पतन की ओर जा रही है।
इस प्रकार नारी का जीवन अत्यन्त परिवर्तनशील रहा है। वैदिक काल की नारी ने शौर्य, त्याग, समर्पण, विश्वास, शक्ति आदि का आदर्श प्रस्तुत किया। मध्यकाल में अवश्य नारी की. स्थिति दयनीय रही, परन्तु आधुनिक काल में उसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया है। यद्यपि भोगवाद के आकर्षण में आधुनिक नारी खिंच रही है, किन्तु पूरा विश्वास है कि जल्दी ही वह इस आकर्षण से मुक्त हो जायेगी और अपने उच्च कार्यों से देश के सम्मान को विश्व में स्थापित करेगी।
36) विज्ञान वरदान या अभिशाप
प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहते है। मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के लिए जो नए – नए आविष्कार किए हैं, वे सब विज्ञान की ही देन है। आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान के अनगिनत आविष्कारों के कारण मनुष्य का जीवन पहले से अधिक आरामदायक हो गया है। दुनिया विज्ञान से ही विकसित हुई है।
मोबाइल, इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप ने मनुष्य की जिन्दगी ही बदलकर रख दी है। जितनी जल्दी वह सोच सकता है लगभग उतनी ही देर में वह जिस व्यक्ति को चाहे मैसेज भेज सकता है, उससे बातें कर सकता है।
यातायात के साधनों से आज यात्रा करना आसान हो गया है। आज महीनों की यात्रा दिनों में तथा दिनों की यात्रा चंद घंटों में पूरी हो जाती है। तेज गति की रेलगाड़ियाँ, हवाई जहाज यातायात के रूप में काम में लाए जा रहे हैं।
चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान ने हमारे लिए बहुत सुविधाएं जुटाई हैं। आज कई जानलेवा असाध्य बीमारियों का इलाज मामूली गोलियों से हो जाता है। कैंसर और एड्स जैसी बीमारियों के लिए चिकित्सा विशेषज्ञ लगातार नई – नई खोजों के लिए प्रयास कर रहे हैं।
इस तरह हम देखें तो विज्ञान ने मानव सभ्यता के विकास एवं वृद्धि में क्रान्तिकारी योगदान दिया है। इस तरह विज्ञान मनुष्य जाति के लिए वरदान साबित हुआ है।
विज्ञान के दुरुपयोग को लेकर भी गंभीर चुनौतियाँ हैं। अगर विज्ञान का दुरुपयोग हुआ तो यह मानव सभ्यता के लिए अभिशाप साबित होगा। अतीत में हम इसके भयावह संकेत देख चुके हैं। एक ओर परमाणु उर्जा है जिसे बिजली उत्पन्न करने के काम में लाई जा सकती हैं। वहीं इससे बनने वाले परमाणु हथियार मानव – सभ्यता को क्षणों में नष्ट कर सकते हैं। नागासाकी एवं हिरोशिमा में परमाणु बम के प्रयोग की भयावह तस्वीर हम 1945 में देख चुके हैं। इसके अलावा चेर्नोबिल परमाणु रिएक्टर हादसा, जापान में ही हाल में आए भूकंप के बाद वहाँ परमाणु रिएक्टर हादसे की त्रासदी से यह साबित किया है कि विज्ञानरूपी वरदान कभी भी अभिशाप में बदल सकता है।
अतःएव मनुष्य को विज्ञान का लाभ मानवता की भलाई के लिए उठाना चाहिए एवं इसके दुरुपयोग के प्रति हमेशा सजग एवं सचेत रहना चाहिए।
37) वैश्वीकरण
वैश्वीकरण का अर्थ विश्व के विभिन्न समाजों एवं अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण से है। अंग्रेजी का ‘ग्लोबलाईजेशन्’ शब्द ही हिन्दी में भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण के नाम से जाना जाता है। वैश्वीकरण वह है, जिनके तहत् कोई वस्तु या विचार अथवा पूंजी की एक देश से दूसरे देश में बिना रोक – टोक आवाजाही हो।
दरअसल वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे आमतौर पर लोग आर्थिक रूप से ही देखते हैं। अर्थात् पूंजी और वस्तुओं की बिना किसी रोकटोक के एक देश से दूसरे देश में आवाजाही। लेकिन इसका प्रभाव आर्थिक क्षेत्र में ही सीमित न होकर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी पड़ रहा है।
सूचना क्रान्ति से पूरा विश्व एक गाँव में बदल चुका है। विश्व बैंक’ जैसी संस्थाओं ने वैश्वीकरण के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विश्व बैंक के सहयोग से ही समस्त देशों में मुक्त व्यापार का प्रादुर्भाव हो पाया। वैश्वीकरण के कारण ही विश्व के बाजार तक विभिन्न कंपनियों की पहुँच संभव हो पायी। इसी कारण विकसित एवं विकासशील देशों को आर्थिक लाभ हुआ हैं। परस्पर व्यापार से विश्व शांति की दिशा में महत्वपूर्ण मदद मिल चुकी है। रोजगारों के अवसरों में वृद्धि हुई है। लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के रास्ते पर चलकर विकासशील देशों को मदद मिली है।
भारत में वैश्वीकरण की कल्पना वैदिक समय से ही रही है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ एवं ‘सर्वे भवंतु सुखीन’ की धारणा समस्त विश्व को एक परिवार की तरह देखने की रही है। लेकिन आज का वैश्वीकरण उससे भिन्न है। आज व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का समय है। वैश्वीकरण के मूल में ‘युक्त बाजार’ की भावना रही है। लेकिन गरीब राष्ट्रों को इसका पूरा फायदा नहीं मिला है। विश्व में कुछ राष्ट्रों का व्यापारिक एकाधिकार बढ़ा है। समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है।
भारत में वैश्वीकरण की शुरुआत 1991 में तब के वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से मानी जाती है। इन नीतियों का प्रभाव आज भारत में व्यापक स्तर पर देखा जा सकता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से भारत में नीजिकरण को बढ़ावा मिला है। बड़ी विदेशी कंपनियों का भारत में निवेश बढ़ा है।
वैश्वीकरण को अगर सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इससे लाभ भी हुए हैं। आज कोई भी राष्ट्र विश्व से अलग – थलग नहीं रह सकता। वैश्वीकरण ने अन्तरराष्ट्रीय व्यापार और सहयोग को बढ़ाया है।
38) शहरी जीवन
शहरी जीवन आडंबर और सुख – सुविधाओं से युक्त होता है। यहाँ के लोग अत्याधुनिक सुविधाओं का उपयोग करते हैं। यहाँ भीड़ और शोर – शराबा भी अधिक होता है। शहरी लोग परिश्रमी होते हैं तथा हर समय व्यस्त रहते हैं। लोगों के पास पड़ोसियों, मित्रों तथा रिश्तेदारों से मिलने का कम समय होता है। शहरों में कुछ लोगों के पास जीवनयापन के असीमित साधन होते. हैं। वहीं कुछ लोग बहुत ही गरीब होते हैं। गरीब लोगों को गन्दी बस्तियों में रहना पड़ता है।
भारत को कभी गाँवों का देश कहा जाता था। आजादी के बाद भारत में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। कई बड़े – बड़े नगर भारत में विकसित हो गए हैं। रोजगार के अवसरों की उपलब्धता, अच्छी शिक्षा एवं अच्छी चिकित्सा सुविधाओं के चलते लोग गाँव से शहर की ओर पलायन करते हैं। शहरों में आधुनिक जीवन की वो सभी सुविधाएं मिलती है जो गाँवों में नहीं मिलती है। शहर में हर प्रकृति और स्वभाव के लोगों के लिए स्थान है। यहाँ सामाजिक भेदभाव कम ही होता है। लोग एक दूसरे के जीवन में कम हस्तक्षेप करते हैं। इन कारणों से भी लोग शहरों की ओर खींचे चले आते है। शहर का जीवन भागदौड़ का जीवन भी कहा जाता है। यहाँ बहुत प्रतिस्पर्धा होती है जो लोगों में तनाव को जन्म देती है। प्रत्येक दिन व्यक्ति को नई – नई समस्याओं का सामना करना होता है। इन समस्याओं और उलझनों से लोगों को जल्दी से जल्दी तालमेल बिठाना होता है।
प्रायः लोग शहरों में रहना ही पसंद करते है। शहर वास्तव में उन लोगों के लिए विश्वविद्यालय हैं जो अनुभव और अवलोकन से कुछ सीखना चाहते हैं। शहरों के प्रति प्रेम के कई कारण है। इसीलिए लोग शहरों की हानियों को भी स्वीकार कर लेते हैं। शहरों में हजारों व्यवसाय, उद्योग – धन्धे है।
किसी ने ठीक कहा है कि “यदि आप चाहते हैं कि आपको सभी जाने और आप कुछ न जाने तो गाँव में रहे, परन्तु यदि जानना चाहते हैं और आपको कोई न जाने, तो शहरों में रहो।’
39) पुस्तक – एक उत्तम साथी
पुस्तक हमारी सबसे अच्छी मित्र होती है। वह कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ती है। पुस्तक प्रेरणा की स्त्रोत होती है। उन्हें पढ़कर जीवन में महान कार्य करने की भावना जागती है। पुस्तकें मनुष्य के जीवन को बदल देती है। महात्मा गाँधी स्वयं गीता, उपनिषद एवं टॉलस्टाय और थोरों के साहित्य से प्रभावित थे। मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ पढ़कर कितने ही नौजवानों ने देश की आजादी में हिस्सा लिया था। एक अच्छी पुस्तक का अध्ययन आपके जीवन को बदल सकता है। पुस्तकें ज्ञान का अथाह भंडार है। यह हमारे ज्ञानी पूर्वजों की बुद्धि का संचित कोष है। पुस्तकें मुर्दा व्यक्ति में भी नई जान फूंक सकती है। पुस्तकें न तो किसी से दुश्मनी करना सिखाती है और न ही किसी से द्वेष करना। इसमें विद्वानों के जीवन भर के अनुभव भरे होते हैं।
मनुष्य एक दूसरे को धोखा दे सकते हैं। कई बार आपके मित्र आपको छोड़ जाते है। पुस्तकें ऐसा नहीं करती। वे आपका हौसला बढ़ाती है। आपको रास्ता दिखाती है। हिम्मत के साथ जिंदगी की चुनौतियो से लड़ने को प्रेरित करती है। पुस्तकें हमारे भविष्य का निर्माण करती है। आप कुछ भी जीवन में उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं उसमें पुस्तक का सबसे अहम योगदान होता है। पुस्तकें हमारे दृष्टिकोण का विस्तार करती हैं। वह हममें दूसरे विषयों के प्रति भी रूचि जाग्रत करती है। धीरे – धीरे हमारी रुचि चिकित्सा, मनोविज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष, ज्योतिष, साहित्य, राजनीति, अन्तरराष्ट्रीय विषय, बागवानी, चित्रकला की किताबों की तरफ़ बढ़ जाती है।
इस प्रकार पुस्तक हमारी घनिष्ठ मित्र ही नहीं बल्कि हमारी मार्गदर्शक भी है। वह हमारे जीवन को बदलती है। हमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देती है। इसलिए हमें अच्छी पुस्तकों का संग्रह रखना चाहिए। पुस्तक ही है जो मनुष्य को अपूर्णता से पूर्णता की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाती है। अच्छी पुस्तकों को घर में रखना घर को देव मंदिर बनाने के समान है। और अंत गर्लाइल (दार्शनिक) का यह कथन याद रखना चाहिए – ‘जिन घरों में अच्छी किताबें नहीं होती वे जीवित मुर्दो के रहने के कब्रिस्तान है।’ इसलिए पुस्तक को अपना सच्चा साथी बनाना चाहिए।
40) होली
होली हिन्दुओं का पारंपरिक त्योहार है। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली को रंगों का त्योहार कहा जाता है। यह त्योहार भारत के अलावा कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू रहते हैं वहाँ भी बड़े धूम – धाम के साथ मनाया जाता है। यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन भी कहते हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर – गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ढोल बजाकर होली के गीत गाये जाते हैं और घर – घर जाकर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुराने गिले शिकवों को दूर कर आपस में गले मिलते है। होली प्रेम और भाईचारे का भी त्योहार है। एक दूसरे को रंगने एवं गाने – बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहनकर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।
होली राग रंग का त्योहार है। यह समय बसंत ऋतु का होता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। होली का त्योहार बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाता है। गाँव – देहातों में फाग और धमार का गाना शुरू हो जाता है। बच्चे – बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच छोड़कर नृत्य, संगीत एवं रंगों में डूब जाते है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोवा) और मैदा से बनती है।
होली का त्योहार सिर्फ हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। मुगल काल में इसके कई प्रमाण मिलते हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हंपी में होली के चित्र उकेरे मिलते हैं।
होली को लेकर कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। सबसे प्रसिद्ध कहानी भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु नामक बलशाली असुर की है। वह अपने को ईश्वर कहता था। उसका पुत्र प्रहलाद उसे ईश्वर नहीं मानता था। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद से नाराज होकर अपनी बहन होलिका, जिसे आग में नहीं जलने का वरदान प्राप्त था, से प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठने को कहा। आग में बैठने से होलिका तो जल गई लेकिन प्रहलाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रहलाद की याद में तभी से होली मनाई जाती है।
होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों के विजय का सूचक है। होली रंगों का त्योहार, हँसी – खुशी का त्योहार है। समाज में ऊँच – नीच, अमीर – गरीब का भेद इसमें मिट जाता है। यह परस्पर प्रेम और सौहार्द का प्रतीक भी है।
41) कालाधन
भारत में अवैध तरीकों से कमाये गये धन को कालाधन (ब्लैक मनी) कहते हैं। यह वह धन होता है जिस पर कर (टैक्स) नहीं अदा किया गया होता है। भारतीय विदेशों में खासकर स्विस बैंकों में कालाधन को छुपाते है। एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में स्विस बैंकों में भारतीयों का कालाधन 50 प्रतिशत बढ़ गया है। कर चोरी करनेवालों के लिए स्विट्जरलैण्ड स्वर्ग बन चुका है। ऐसा करने से भारतीय अर्थव्यवस्था को करोड़ों, अरबों रुपयों के कर की हानि होती है।
कालाधन के दो रूप है। एक आंतरिक कालाधन, जो देश के भीतर ही छिपाया जाता है। इसके कई तरीके यथा – करेंसी का संग्रह करके, सोना, चाँदी आदि बहुमूल्य धातुओं का संग्रह था अचल संपत्ति के रूप में होते हैं। यह एक विकराल समस्या है। दूसरा रूप – बाह्य कालाधन का है। यह विदेश के बैंकों में जमा धन, विदेश में अचल संपत्ति या उद्योग में निवेश करके या शेयर के रूप में तथा टैक्स हेवन देशों में जमा कालाधन के रूप में होता है।
भारत में कालाधन 1970 के दशक से ही चर्चा में बना रहा है। 1980 के दशक में बोफोर्स घोटाले के बाद इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया जाने लगा। इसके बाद हर चुनाव में राजनेता कालेधन के बारे में बात करते हैं। 2014 का आमचुनाव में कालाधन केन्द्रीय मुद्दा था। सरकार इसके रोकथाम के लिए नोटबंदी भी की लेकिन कालाधन है कि कम होने का नाम नहीं ले रहा। कालेधन के स्त्रोत का पता लगाना और इसे बैंकों में जमा कराना एक जटिल मुद्दा है।
कई स्टिंग ऑपरेशंस में भी इस बात का खलासा हआ है कि कालाधन को किस तरह से भारतीय बैंको, शेयर बाजार और उद्योगों में लगाया गया है। इस समस्या से निपटने के लिए रणनीति बनाने की जरूरत है। इसका सबसे अच्छा तरीका मौजूदा कानूनों को प्रभावी तरीके से लागू करना होगा। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कानून लागू करना हमेशा मुश्किल रहा है। देश की अर्थव्यवस्था पर कालेधन के बड़े खतरनाक और विशासकारी असर पड़ते हैं। कालाधन हमारे देश की प्रगति में गंभीर रूकावट पैदा कर रहा है। भारत को उन देशों पर भी दबाव डालना होगा जो टैक्स चोरी के अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं।
42) साहित्य और समाज
‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ यह उक्ति बार – बार कही जाती है। समाज में जो कुछ घट रहा होता है उसकी व्याख्या साहित्य करता है। प्रेमचन्द ने कहा था ‘साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि उसके आगे जलने वाली मशाल है।’ साहित्य हममें हमारे समाज को, वर्तमान को समझने, परखने की समझ विकसित करता है। वह हमें सबसे बिना किसी भेदभाव के प्रेम करना सिखाता है। लोक कल्याण की भावना साहित्य में निहित होती है। साहित्य हममें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की भावना पैदा करता है। एक अच्छा साहित्य मुर्दा व्यक्ति में भी जान फूंक सकता है। जब से मनुष्य जाति का अस्तित्व है तब से साहित्य रचा जा रहा है। हमें साहित्य में मनुष्य जाति का विकास दिखलाई पड़ेगा। साहित्यकार समाज अथवा युग की उपेक्षा नहीं कर सकता। साहित्य का आधार ही जीवन है।
देश की आजादी की लड़ाई में माखनलाल चतुर्वेदी की ‘फूल की अभिलाषा’ एवं मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ ने न जाने कितने नौजवानों को आजादी की लड़ाई में भाग लेने को प्रेरित किया था। कबीर ने आमजन के दुःख दर्दो, जातिगत भेदभावों को अपने दोहों में जगह दी है। मीरा ने सामंती समाज में जकड़ी स्त्री को वाणी दी है। प्रेमचन्द की कहानियों से भी हम भारतीय किसान के दुख दों से साक्षात्कार कर पाते है। साहित्य हमें हमारे समाज की संघर्ष से भरी दास्तान को सुनाता है। लोकगीतों को ही ले लीजिए। महिलाएँ खेतों में काम करती हुई, परिवार में, उत्सवों में, शादी ब्याह के मौकों पर जब इन्हें गाती है तो हमारा संपूर्ण लोकसमाज जीवंत हो उठता है। बात – बात पर तुलसी की, कबीर की उक्तियाँ समाज में कहने का प्रचलन है। यह दिखाता है कि किस तरह हमारा समाज साहित्य से जुड़ा हुआ है।
साहित्यकार अपनी पैनी निगाह से देखता है और उसे साहित्य के रूप में अभिव्यक्त करता है। वह चारों तरफ देखे हुए सत्य को, अपने अनुभव को, कल्पना के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत करता है। वह समाज की विद्रूपताओं को अभिव्यक्त कर समाज को जाग्रत करता है। साहित्य सिर्फ मनोरंजन की वस्तु ही नहीं है उसमें प्रजा का कल्याण और देशप्रेम भी निहित है। साहित्य हमें प्रगतिशील बनाता है। हमारी अज्ञानता को दूर कर एक नया रास्ता दिखाता है। साहित्य किसी भी समाज एवं राष्ट्र की नींव है।
इसीलिए कहा भी गया है –
‘अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।’
43) मित्रता
‘मित्रता बड़ा अनमोल रतन/कब इसे तोल सकता है धन’ अर्थात मित्रता की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती है। दुनिया का सारा वैभव, धन दौलत से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है। सच्चा मित्र सुख और दुःख में समान भाव से मित्रता निभाता है। मुसीबत में जो आगे बढ़कर सहायता करे वही सच्चा मित्र होता है। यह भी कहा गया है ‘सच्चे मित्र की पहचान विपत्ति में होती है।’ एक अच्छा मित्र पाप से बचाता है, अच्छे कामों में लगाता है, मित्र के गुणों को प्रकट करता है। सच्चा मित्र जीवन का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए मित्र के चुनाव में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने मनुष्य को सलाह दी हैं – ‘मित्रता करने में शीघ्रता मत करों, पर करो तो अंत तक निभाओ।’
जीवन रूपी संग्राम में मित्र की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कहानी जगजाहिर है। कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती की मिसाल अब भी दी जाती है। कृष्ण जब कर्ण को उसके जीवन का रहस्य बताते है कि वह स्वयं पांडवों का भाई है, अगर वह दुर्योधन का साथ छोड़ दे तो उसे हस्तिनापुर का राज मिल सकता है, तब कर्ण इतने बड़े प्रस्ताव को दुर्योधन की मित्रता के आगे ठुकरा देता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘रश्मिरथी’ में कर्ण के जवाब को इन पंक्तियों में लिखा है – ‘मित्रता बड़ा अनमोल रत्न कब इसे तोल सकता है धन सुरपुर की तो है क्या बिसात मिल जाये अगर वैकुंठ हाथ कुरुपति के चरणों में धर दूं।’ मित्रता इसे कहते हैं। बड़े से बड़े लालच में भी जो मित्रता का बलिदान न करें वही सच्चा मित्र होता है।
सच्चा मित्र उस कवच की भाँति है जो मुश्किल दौर में हमारी रक्षा करता है। वह उस पेड़ की भाँति है जो गर्मी में शीतलता प्रदान करता है। वह मनुष्य धिक्कार के लायक होगा जो मित्र रूपी ऐसे पेड़ के साथ धोखा करता है। आजकल मित्रता स्वार्थवश होती है। आज अच्छे मित्र मिलना बहुत मुश्किल है।
सच्ची मित्रता वरदान की तरह है। जीवन आप और कुछ न कमाएँ लेकिन अच्छी दोस्ती कमानी चाहिए। और यही नहीं, मित्र के लिए हमेशा त्याग भी करना पड़े तो करना चाहिए। यही जीवन का मर्म है।
44) विज्ञापन
किसी वस्तु, उत्पाद या सेवा को बेचने के उद्देश्य से किया जाने वाला प्रचार विज्ञापन कहलाता है। विज्ञापन एक तरह से विक्रय कला का एक जन संचार माध्यम है जिसके माध्यम से उपभोक्ता तक उत्पाद की जानकारी पहुँचायी जाती है।
आज अधिक से अधिक उत्पादन ही विकास का पर्याय समझा जाने लगा है। लोगों की क्रयशक्ति और माँग को ध्यान में रखकर उत्पादन नहीं किया जाता है। इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि बाजार में माँग पैदा की जाए। लोगों को उत्पाद के प्रति आकर्षित किया जाए ताकि वे उसे खरीदने के लिए तत्पर हो जाए। विज्ञापन यही काम करता है। विज्ञापन लोगों में कृत्रिम माँग पैदा करता है। आज सड़क से लेकर शयनकक्ष तक विज्ञापन ही विज्ञापन है। विज्ञापन का कार्य ही उत्पाद को लोगों तक पहुँचाना होता है। उत्पाद को लोकप्रिय बनाने तथा उसकी आवश्यकता महसूस कराने का कार्य विज्ञापन करता है।
विज्ञापन कम शब्दों, कम समय में बहुत कुछ कह जाने की कला है। विज्ञापन हमारे जीवन का आज सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं। हम विज्ञापन से प्रभावित होकर या देखकर ही किसी चीज को खरीदने का मन बनाते है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक विज्ञापन की दुनियाँ से ही गुजरते हैं। चाय की दुकान से लेकर वाहनों और दीवारों पर हर जगह विज्ञापन ही विज्ञापन दिखते है। . यह कहा जाता है कि किसी तथ्य को बार – बार दोहराया जाये तो वह वस्तु या तथ्य सच लगने लगता है। विज्ञापन के मूल में यही तत्व है। विज्ञापन के माध्यम से ही हमारे तक उस वस्तु की गुणवत्ता, जरूरत की जानकारी पहुंचाई जाती है। विज्ञापन हमारे मन पर अमिट छाप छोड़ जाते है।
आज विज्ञापन का कारोबार ही करोड़ों का है। विज्ञापन जनसंचार के विभिन्न माध्यमों जैसे टीवी, रेडियो, समाचार पत्र, ब्लॉग, सोशल मीडिया, वेबसाईट के द्वारा प्रसारित किया जाता है। विज्ञापन करना गलत नहीं है। लेकिन कई बार विज्ञापन उत्पाद की सही जानकारी उपभोक्ता (ग्राहक) को नहीं उपलब्ध करवाते जिससे ग्राहकों को धोखा भी होता है। इसलिए विज्ञापन की निष्पक्षता का ध्यान रखा जाना चाहिए। सरकार को ऐसे लोगों के प्रति कड़ा व्यवहार कर विज्ञापन कला को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए।
45) मोबाइल फोन : सुविधा या असुविधा
मोबाइल विज्ञान का एक और वरदान है। मोबाइल आज हमारे जीवन का आवश्यक अंग बन गया है। पहले एक जगह से दूसरी जगह बात करने के लिए चिट्ठिया चला करती थी। डाकघर से टेलिग्राम हुआ करते थे। मोबाइल ने सूचना प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव कर दिया। अब चिट्टी – पत्र एवं टेलिग्राम के दिन लद गए हैं। दुनिया के किसी भी क्षेत्र में खड़े होकर हम किसी से भी चंद सैकंडो में बात कर सकते हैं।
आज अफसर से लेकर सड़क पर चलनेवाला, किसान, मजदूर हर कोई इसका लाभ उठा रहा है। घर पहुंचने में देरी हो रही है, वाहन खराब हो गया है, कोई बीमार हो गया है, किसी भी तरह की परेशानी में मोबाइल एक मित्र की तरह हमेशा आपके साथ रहता है। मोबाइल से केवल बात करने की सुविधा ही नहीं, आज स्मार्ट फोन का जमाना है। घड़ी, कैलेंडर, अलार्म, समाचार एप, लाईव टी.वी., तरह तरह के गेम, सभी तरह के संदेश आप तक सहज उपलब्ध है। आज हम घर बैठे टिकट खरीद सकते है। सभी तरह के बिलों का भुगतान कर सकते हैं। होटल बुक कर सकते हैं। मोबाइल में हजारों ई – बुक रख सकते हैं। मोबाइल को एक छोटा सा कम्प्यूटर कह सकते है। आप इन्टरनेट के जरिये सोशल मीडिया पर अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। अपने मित्रों से बात कर सकते हैं।
मोबाइल फोन से कुछ नुकसान भी है। बच्चे दिन भर मोबाइल पर वीडियो गेम खेलते रहते हैं। वे बाकी कामों जैसे पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाते। मोबाईल फोन से निकलने वाले विकिरण बहुत ही खतरनाक होते हैं। दिन भर मोबाइल को देखते रहना घातक हो सकता है। कम उम्र में ही बच्चों की आँखें खराब हो जाती है। मोबाइल से समय की बर्बादी भी होती है। मोबाइल में लगे रहने से लोग अपने परिवार से भी दूर हो जाते है। अभिभावक अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देकर स्वयं भी मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं।
इस प्रकार मोबाइल हमारी सुविधा के लिए है। यदि इसका उपयोग सही रूप में किया गया तो यह हम सभी के लिए वरदान साबित होगा क्योंकि विज्ञान और तकनीक मनुष्य के कल्याण के लिए है। हमें इसका उपयोग जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए। अगर हम इसका गलत उपयोग करेंगे तो यह मानव जाति के लिए अभिशाप ही साबित होगा। सोशल मीडिया के दुरुपयोग और उसके परिणाम हम देख ही रहे हैं। यह चिंतनीय है।
46) महिला सबलीकरण
महिला सबलीकरण शारिरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक स्तर पर महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है।
महिलाओं को पुरुष प्रधान समाज में हमेशा भेदभाव का सामना करना पड़ा है। उसे हमेशा चेरी या दासी के रूप में देखा गया है। महिलाओं को समानता का दर्जा देना गलत माना जाता था। स्त्री का इतिहास ही दुःखों का इतिहास रहा है। तुलसीदास रामचरितमानस में स्त्री की इस दशा पर विधाता को उलाहना देते हुए कहते हैं – ‘केहिविधि सृजि नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहूँ सुख नाही।’ तुलसी कहते हैं – बिचारी को सपने में भी सुख नसीब नहीं है। महिलाओं को शिक्षा अर्जित करने से भी हमेशा से वंचित रखा गया था।
स्वतंत्र भारत में सरकार ने महिलाओं की दशा को सुधारने के लिए अनेक कदम उठाए। महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। उन्हें वोट का अधिकार प्रदान कर राजनीति में उन्हें पुरुषों के बराबर ला खड़ा किया। उन्हें संपत्ति में बराबरी का अधिकार प्रदान किया गया। सरकारी नौकरियों में उनके लिए अवसर सुनिश्चित किए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक सेवा के हर क्षेत्र में महिलाएँ दिखाई देने लगीं। वे अब घर की चार दिवारी में ही कैद नहीं रह गयी है।
राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, सावित्रीबाई फूले जैसे समाज सेवकों – सेविकाओं ने महिलाओं के उद्धार के लिए लंबा संघर्ष किया है। महिलाओं के खिलाफ होनेवाली लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए सरकार ने कई सारे प्रावधान किए हैं। कई सारी स्वयंसेवी संस्थाएं महिला सबलीकरण के लिए प्रयासरत हैं। सरकार ने महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई सारी योजनाएं शुरू की है। राजनीतिक भागीदारी के लिए निर्वाचन में महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया है। महिलाएँ भी सामाजिक बाधाओं को तोड़कर आगे बढ़ रही है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि भारत का शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए महिलाओं को आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर मजबूत करना होगा।
47) समय की महता
समय एक अनमोल वस्तु है। खोया हुआ समय कभी हाथ नहीं आता। हमारे जीवन की सफलता का आधार समय के सदुपयोग पर है। जो व्यक्ति समय का सदुपयोग करता है, वह अपने जीवन में उज्ज्वल सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
जो लोग समय के महत्व को नहीं समझते हैं, वे अपने समय का दुरुपयोग करते हैं। सुबह देरी से उठना और उठने के बाद आधा घंटा आलस्य मिटाने में लगाना, गप्पें हाँकना, दूसरों की निंदा करना आदि में अपना काफी समय बरबाद करना ये सब उचित नहीं।
यदि हम महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ेंगे, तो समय के महत्व का पता चलेगा। समय के सदुपयोग ने ही उनको अमर कीर्ति प्रदान की है। ज्ञान, धन, कीर्ति, कुशलता आदि प्राप्त करने के लिए समय का सदुपयोग करना अनिवार्य है।
समय का सदुपयोग करने के लिए हमें प्रत्येक काम ठीक समय पर करना चाहिए। अध्ययन, व्यायाम, समाजसेवा, मनोरंजन और अन्य सभी काम ठीक – ठीक समय पर करना चाहिए। ऐसा करने पर काम का बोझ महसूस नहीं होगा। समय को दुर्लभ सम्पत्ति मानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
48) हमारे राष्ट्रीय त्योहार
राष्ट्रीय त्योहार एकता के प्रतीक होते हैं। वे प्रादेशिक, सांप्रदायिक, जातीय एवं भाषायी संकीर्णता से भी मुक्त होते हैं। 15 अगस्त हमारा स्वतंत्रता – दिवस है और 26 जनवरी गणतंत्र – दिवस है। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ था। 26 जनवरी, 1950 को वह सार्वभौम घोषित हुआ था। इनके अलावा गांधी जयंती भी राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनायी जाती हैं।
इन त्योहारों को मनाने के पीछे राष्ट्रप्रेम, एकता, त्याग और बलिदान की भावना रहती है। सभी धर्मों के प्रति समान आदर – भाव व्यक्त कर राष्ट्र की एकता का संकल्प दुहराते हैं। देश के अमर शहीदों का स्मरण कर उनके त्याग और बलिदान से प्रेरणा लेते हैं।
राष्ट्रीय उत्सवों के कार्यक्रमों में भारतीय जनता के पूर्ण सहयोग के लिए प्रयत्न किए जाते हैं। सरकारी कार्यालयों, शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा आयोजित उत्सवों में कुछ उत्साह के दर्शन होते हैं, परन्तु राष्ट्रीय उत्सवों में सामान्य जन की भागीदारी कम होती है।
आज देशभर में राष्टीय जाग्रति उत्पन्न करने की आवश्यकता है। राष्ट्र का वास्तविक स्वरूप जनता और उसकी चेतना है। केवल शिक्षित और शक्तिशाली लोगों द्वारा राष्ट्रीय त्योहार मनाने से क्या होगा? अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम सब मिलकर राष्ट्रीय त्योहार मनाएँ और एकता प्रस्तुत करें।
49) भ्रष्टाचार निर्मूलन
भ्रष्टाचार का अर्थ है – अनैतिक अथवा अनुचित व्यवहार। आज देश में चारों ओर भ्रष्टाचार फैला हुआ है। यदि समय रहते इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो सारे देश का वातावरण बिगड़ सकता है। मनुष्य बड़ा लालची है। वह बहुत कुछ पाने के लिए अनैतिक मार्ग अपनाता है। इस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है। भाषावाद, क्षेत्रीयता, जातीयता आदि से भी भ्रष्टाचार बढ़ता है।
भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं। चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, दल – बदल, जोर – जबरदस्ती – ये सब भ्रष्टाचार के ही रूप हैं। धर्म का नाम लेकर लोग अधर्म का काम करते हैं। अधिकार, कुर्सी के लिए भी भ्रष्टाचार पनपता है। परिणामतः समाज में भय, आक्रोश व चिंता का वातावरण बनता है। यह हमारी व्यवस्था को बिगाड़ता है। भ्रष्टाचार विकास की प्रगति में बाधा है। आजकल सेना में भी इसकी चर्चा सुनी गई है जो हमारे लिए चिंता का विषय है।
भ्रष्टाचार किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज और देश की समस्या है। इनका पूर्ण – विनाश सामूहिक प्रयास से ही संभव है। इसके लिए शासन की इच्छा शक्ति होना जरूरी है। भ्रष्टाचार के आरोपियों को कठोर से कठोर दंड देना चाहिए। भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए सरकार, समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर कार्य करना चाहिए। लगता है, हमारी शिक्षण प्रणाली में कई कमियाँ हैं, सामाजिक नैतिकता की कमी होना अच्छा नहीं है। आइए, हम संकल्प करें कि न हम रिश्वत देंगे और न रिश्वत लेंगे।
50) देश प्रेम।
जिस व्यक्ति के हृदय में देश के प्रति प्यार नहीं है, वह मनुष्य नहीं हो सकता। वह एक पत्थर के समान है। देश – प्रेम मानव का एक स्वाभाविक गुण है। यह गुण तो पशु – पक्षियों और जानवरों में भी देखा जा सकता है। ये दिन – भर इधर – उधर घूमकर शाम को वापस अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।
जिस देश में हमारा जन्म हुआ है, जहाँ हमारा लालन – पालन हुआ है, जहाँ का अन्न – जल हनने खाया है, उस देश के प्रति हमारे हृदय में प्रेम होना चाहिए। अंग्रेजों के शासन काल में हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था।
वीरांगना लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, मंगल पांडे, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लजपतराय, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, खुदीराम बोस, सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी जैसे सैकड़ों देशभक्तों ने अपने देश की आजादी के लिए तन, मन और धन न्यौछावर कर दिया था। ये सभी शहीद हम स्वतंत्र भारतीयों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। हमारी आँखों में सदा देशप्रेम के आँसू छलकते रहें, तभी हम सच्चे देशप्रेमी कहलाएंगे।
आज देश – प्रेम का अर्थ संकीर्ण हो गया है। कुछ स्वार्थी लोग भाषा, धर्म, प्रांत, जाति, संप्रदाय आदि के लिए आपस में झगड़ते हैं, घृणा और द्वेष फैलाते हैं। इससे हमारे देश की एकता को हानि पहुँचती है। वास्तव में देशभक्ति के नाम को यह धब्बा है। हमें अपने देश के प्रति अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना चाहिए। हमें अपने देश की एकता की रक्षा करनी चाहिए।
यदि हम राष्ट्रीय एकता तथा प्रेम की भावना अपनाएँगे, तभी हम सच्चे देश – प्रेमी कहलायेंगे। हमें अपने बलिदानियों का सम्मान रखने के लिए स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए। तभी हमारे देश की उन्नति होगी और भारत फिर गौरवशाली देश बनेगा, ‘सोने की चिड़िया’ कहलायेगा।
51) स्वस्थ जीवन के लिए व्यायाम
मानसिक सुख को प्राप्त करने का मुख्य साधन शारीरिक स्वास्थ्य है। मानव जीवन में स्वास्थ्य ही सर्वस्व हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए लोग अनेक उपाय करते हैं पर उनमें सबसे अधिक सरल और सुगम उपाय व्यायाम है। जीवन व्यायाम के बिना कभी फूर्तिमय नहीं रहता। इसलिए व्यायाम मानव जीवन के लिए अत्यधिक आवश्यक है।
शारीरिक अंगों द्वारा समुचित ढंग से परिश्रम करने को व्यायाम कहते हैं। व्यायाम के विभिन्न भेद हैं। भिन्न – भिन्न प्रकार के आसन, दण्ड – बैठक, खुले मैदान में दौड़ना, घूमना, प्राणायाम करना, कुश्ती लड़ना, तैरना, हॉकी, फुटबाल, वालीबाल, क्रिकेट, टेनिस, कबड्डी, बेडमिन्टन खेलना आदि सभी को व्यायाम के अन्तर्गत रख सकते हैं। इन व्यायामों में शरीर के विभिन्न अंगों से समुचित काम लिया जाता है जिससे मांस – पेशियों में बल आता है और उनका विकास समुचित तरीके से होता है। हड्डियों में मजबूती आती है तथा परिश्रम करने से पसीना अधिक निकलता है जिससे रक्त का संचार ठीक ढंग से होता है और वह साफ हो जाता है।
मानव – जीवन में व्यायाम का विशेष स्थान है। जिस प्रकार रेल के इंजन को चलाने के लिए कोयले और पानी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार शरीर को क्रियाशील बनाये रखने के लिए व्यायाम रूपी कोयले की आवश्यकता होती है। व्यायाम से सारा शरीर सुडौल, सुगठित एवं दृढ़ बन जाता है। रक्त संचार ठीक तरह तथा तीव्र गति से होता है। हृदय की गति में वेग पैदा हो जाता है तथा पाचक शक्ति भी अपना कार्य ठीक तरह से करती है। सभी इन्द्रियाँ ठीक तरह से अपना कार्य करती रहती हैं। हृदय में उत्साह, आत्म – विश्वास तथा निडरता रहती है। मन भी कभी अप्रसन्न नहीं होता। रोग तो व्यायामशील व्यक्ति के पास फटक ही नहीं सकते।
व्यायाम का सबसे अधिक प्रभाव व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ता है। व्यायाम द्वारा मस्तिष्क का विकास होता है। अंग्रेजी में कहावत है – ‘Healthy mind in a healthy body’ अर्थात् स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क होता है। व्यायाम द्वारा शरीर में एक अनुपम स्फूर्ति का श्रोत बहने लगता है।
आज के वैज्ञानिक युग में व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। व्यायाम के लिए खुली हवा और खुली जगह आवश्यक होती है ताकि श्वास लेने के लिए स्वच्छ वायु मिल शरीर के लिए व्यायाम अत्यंत आवश्यक है। जीवन में अधिक समय तक सुखी और निरोग रहने का एक मात्र साधन व्यायाम ही है।
52) अनुशासन
अनुशासन का अर्थ है – शासन का अनुसरण करना अर्थात् शासन के नियम और नियंत्रण के अधीन रहना। अनुशासित जीवन ही सच्चा जीवन माना जाता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का होना नितांत जरूरी है।
यदि हम अनुशासन का पालन नहीं करेंगे, नियमों को तोड़ेंगे, तो फिर गड़बड़ी हो जायेगी और चारों तरफ अव्यवस्था फैल जायेगी। अतः व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अनुशासन का होना जरूरी है। अनुशासन किसी एक क्षेत्र के लिए सीमित नहीं है। अनुशासन नीचे से ऊपर तक, छोटे से बड़े तक, अमीर से गरीब तक, प्रजा से शासक तक अर्थात् प्रत्येक क्षेत्र में यत्र – तत्र – सर्वत्र अनुशासन
की आवश्यकता है। यदि विद्यार्थी को विद्यालय में, खेल के मैदान में, छात्रावास में, घर – परिवार में, सार्वजनिक स्थानों में पालन करने का अभ्यास हो जाए तो वह जीवन भर अनुशासित रहेगा। अतः जरूरी है कि अध्यापक विद्यार्थियों को अनुशासन सिखाएँ।
कहते हैं, बाल्यावस्था में जो अच्छी बातें सीख ली जाती हैं, उनका अच्छा असर भी जीवन पर्यंत होता है। अतः अच्छे नागरिक बनने के लिए भी अनुशासन की आवश्यकता है और अच्छे शासक के लिए भी अनुशासन की आवश्यकता है।
53) मेरे प्रिय अध्यापक
यों तो मेरे स्कूल के सभी अध्यापक मेरे प्रिय ही हैं। परन्तु उन सभी में मेरे हिन्दी के अध्यापक मेरे सर्वाधिक प्रिय अध्यापक हैं। उनका व्यक्तित्व, पढ़ाने का ढंग, उनका स्वभाव आदि हमें बहुत अच्छे लगते हैं।
हमारे हिन्दी अध्यापक सादगी से रहते हैं। वे पढ़ाते समय प्रायः भारत और संसार के अन्य देशों के महापुरुषों की चर्चा करते हैं। जब हम थक जाते हैं, तो वे किसी महापुरुष के जीवन का प्रेरक प्रसंग सुनाकर हमारा ध्यान पढ़ाई में फिर से लगा देते हैं। उनके द्वारा सुनाया हुआ प्रसंग हमारे पाठ या कविता के अभिप्राय को और भी स्पष्ट कर देता है। सचमुच हमारे हिन्दी शिक्षक सादा जीवन और उच्च विचार के जीते – जागते उदाहरण है।
हमें आश्चर्य होता है कि उन्हें प्रायः प्रत्येक विद्यार्थी का नाम पूरा – पूरा याद है। अनुपस्थित रहने वाले छात्र या छात्रा की कठिनाइयों का अहसास उन्हें अपने – आप हो जाता है। वे सभी विद्यार्थियों से व्यक्तिगत संपर्क कायम कर चके हैं और हर प्रकार से सबकी सहायता करते हैं।
हमारे हिन्दी अध्यापक विद्यालय के प्रत्येक उत्सव की तैयारी में अपना योगदान करते हैं। उनके प्रभाव से हममें अच्छा अनुशासन बना रहता है। यही कारण है कि मुख्याध्यापक व स्कूल की प्रबन्धक समिति भी उनका सम्मान करते हैं। उनका गंभीर अध्ययन और अनुभव सभी को प्रभावित करता है।
विद्यार्थियों के अभिभावक भी हमारे हिन्दी शिक्षक को बहुत पसंद करते हैं। हम सभी विद्यार्थी यह कामना करते हैं कि हमारे हिन्दी अध्यापक अध्यापन के साथ – साथ अपने जीवन में भी सफल हों।
54) कमरतोड़ महँगाई
भारत में महँगाई प्राचीन समय से ही है, परंतु इन दिनों उसका प्रमाण इतना बढ़ गया है कि वह एक बड़ी समस्या हो गई है और लोगों के लिए जीना दूभर हो गया है। सर्वसाधारण व्यक्ति को इसके लिए घोर संघर्ष करना पड़ रहा है। रोटी, कपड़ा और मकान – ये तीनों मूल आवश्यकताएँ हैं, परन्तु महँगाई के कारण इन्हीं के लिए आज आमजन परेशान है।
हमें देखना होगा कि हर वस्तु की कीमत क्यों बढ़ती जा रही है? किन कारणों से बढ़ती कीमतों पर हमारा नियंत्रण नहीं हो रहा है। मूल्य – वृद्धि को रोकने के लिए हमें और कौन – कौन से उपाय करने चाहिए – इस पर भी गंभीर चिंतन होना चाहिए।
गहन अध्ययन करने से पता चलता है कि एक कारण बढ़ती जनसंख्या भी है। जितने साधन हैं, जितने पदार्थ हैं, जितनी उपलब्धि है, उससे कहीं अधिक हमारी आबादी है। अतः महँगाई बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन कम है और मांग अधिक है। इसके अलावा शहरीकरण, धन और साधनों का दुरुपयोग, कालाधन, भ्रष्टाचार, दोषपूर्ण वितरण की प्रणाली – ये सभी मूल्य – वृद्धि के कारण हैं।
आज देशभर में महँगाई के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं, बैठकें व चर्चाएँ हो रही हैं। सरकार भी इससे परिचित है। आजादी के बाद मूल्यवृद्धि को रोकने के लिए कई उपाय किए गए, परन्तु पूर्णतः महँगाई कम नहीं हुई। फिर भी प्रयास जारी है। ‘परिवार – नियोजन’ पर जोर दिया जा रहा है। बाजार को पूरी तरह खुला किया जा रहा है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। वस्तुओं की गुणवत्ता बढ़ रही है, महँगाई पर नियंत्रण होने लगा है। कुछ – एक वस्तुओं के भाव भी कम हुए हैं।
हमें चाहिए की संसाधनों का दुरुपयोग रोकना चाहिए। भंडारणों में सही ढंग से माल सुरक्षित हों। वितरण प्रणाली में सुधार लाना चाहिए। भ्रष्टाचार को रोकना चाहिए। यद्यपि सरकार ने कुछ कानून जरूर बनाए हैं, तथापि वे अभी कारगर नहीं हुए हैं। नीतियों का कठोरता से पालन करना होगा।
देश में मूल्यवृद्धि के नियंत्रण के लिए कुशल नीतियाँ, जनसंख्या नियंत्रण, उत्पादन की कीमतों में प्रतिबंधन हेतु दृढ़ इच्छाशक्ति और परस्पर सहयोग जरूरी है।